Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
समय वलभी में उनका होना असंभव ही है । और इसलिये उस पर से वलभीमें भी जिस संघर्षकी सम्भावना मुनिजीने की है, वह निराधार ही प्रतीत होती है ।
तीसरे, यदि इस तरहका संघर्ष हुआ होता तो मूल सूत्रों में 'वायांतरे पुण' के स्थान में 'णागज्जुणीया उण एवं पदंति' लिखा हुआ मिलता । ' वाचनान्तर' जैसा साधारण निर्देश तो बिना किसी संघर्षके कोई भी ईमानदार संकलयिता कर सकता है क्यों कि इससे उसकी प्रामाणिकताका पोषण होता है । दूसरे माथुरी वाचनानुगत आगमोंमें और उनमें निर्दिष्ट वाचनान्तर के मतोंमें कोई ऐसा महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता जिसको लेकर पारस्परिक संघर्षकी परिस्थिति पैदा होने की संभावना की जा सके । फिर भी हमारा उससे विशेषप्र योजन न होनेसे हम इस संघर्ष के संघर्ष से विरत होते हैं और मुख्य मुद्देकी ओर आते हैं।
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मुनिजीके मतानुसार उस समय पहले तो उक्त दोनों वाचनाओं ( माथुरी और नागार्जुनकी बलभी वाचना ) के समय लिखे गये सिद्धान्तोंके उपरान्त जो जो ग्रन्थ प्रकरण मौजूद थे उन सबको लिखाकर सुरक्षित करनेका निश्चय किया गया। तत्पश्चात् दोनों वाचनाओंके सिद्धान्तोंका परस्पर समन्वय किया गया और जहां तक हो सका भेद भाव मिटाकर उन्हें एक रूप कर दिया और जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें पाठान्तरके रूपमें चूर्णियों में संगृहीत किया । कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक वाचना में थे वैसे के वैसे प्रमाण माने गये ।'
आगे मुनिजी लिखते हैं । - ' उपर्युक्त व्यवस्थाके बाद स्कन्दिल
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