Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका परस्पर समन्वय किया गया और जहाँ तक हो सका भेद भाव मिटाकर उन्हें एक रूप कर दिया और जो जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें पाठान्तरके रूपमें टीका-चूर्णियों में संग्रहीत किया। कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचनामें थे वैसे के वैसे प्रमाण माने गये। उपयुक्त व्यवस्थाके बाद स्कन्दिलकी माथुरी वाचनाके अनुसार सब सिद्धान्त लिखे गये, जहाँ जहाँ नागाजुनी वाचनाका मतभेद और पाठभेद था वह टीकामें लिख दिया गया, जिन पर पाठान्तरोंको नागार्जुनानुयायी किसी तरह छोड़नेको तैयार न थे, उनका मूलसूत्रमें भी वायणंतरे पुण इन शब्दोंके साथ उल्लेख कर दिया ।" ( पृ० ११३-११७ )
संक्षेपमें मुनिजीका मत यह है कि-'स्कन्दिलाचार्यके समयमें वलभीमें मिले हुए संघके प्रमुख आचार्य नागार्जुन थे और उनकी दी हुई वाचना ही वालभी वाचना कहलाती है। देवर्धिगणिकी प्रमुखतामें भी जैन श्रमण संघ इकट्ठा हुआ था, यह बात सही है । पर उस समय वाचना नहीं हुई, पर पूर्वोक्त दोनों वाचनागत सिद्धान्तोंका समन्वय करनेके उपरान्त वे लिखे गये थे, इसीलिये हम इस कार्यको देवर्द्धिगणिकी वाचना न कहकर 'पुस्तक लेखन' कहते हैं।' ___ मुनिजीने इस अवसर पर संघर्ष भी होनेकी संभावना व्यक्त करते हुए लिखा है-'यद्यपि देवद्धिके पुस्तक लेखनके कार्यका विशेष प्रकाश करनेवाला कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, तथापि कार्य की गुरूता देखते हुए यह कहना कुछ भी असंभावित नहीं होगा कि इस कार्यसंघटनके समयमें दोनों वाचनानुयायी संघोंमें अवश्य ही संघर्षण हुआ होगा। अपनी-अपनी परम्परागत वाचनाको ठीक मनवानेके लिये अनेक कोशिशे
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