Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्रुतावतार
५०१ आगे कथावलीमें कहा है कि 'सिद्धान्तोंका उद्धार करनेके बाद स्कन्दिल और नागार्जुन सूरि परस्परमें मिल नहीं सके, . इस कारणसे इनके उद्धार किए हुए सिद्धान्त तुल्य होने पर भी उनमें कहीं कहीं वाचना भेद रह गया, जिसको पिछले आचार्यों ने नहीं बदला और टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें नागार्जुनीय ऐसा पढ़ते हैं इत्यादि उल्लेख करके उन वाचना भेदोंको सूचित किया है। ( 'वी. नि० सं० जै० का०, पृ० ११०-१११ से उद्धृ त )।
इस परसे मुनिजी वलभी वाचनाको देवर्द्धिगणिकी नहीं, किन्तु नागार्जुन की वाचना मानते हैं। उन्होंने लिखा है- जिस कालमें मथुरामें आर्य स्कन्दिलने आगमोद्धार करके उनकी वाचना शुरू की उसी कालमें वलभी नगरीमें नागार्जुन सूरिने भी श्रमणसंघ इकट्ठा किया और दुर्भिक्षवश नष्टावशेष आगम सिद्धान्तोंका उद्धार किया।......."इस सिद्धान्तोद्धार और वाचनामें आचार्य नागार्जुन प्रमु व स्थविर थे, इस कारणसे इसे नागार्जुनी वाचना भी कहते हैं।' (पृ० ११०-१११) __ ऐसी स्थितिमें यदि वलभी वाचना नागार्जुन की थी तो देवर्द्धिगणिने वलभीमें क्या किया, यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। मुनि जीका कहना है कि-'उपयुक्त वाचनाओंको सम्पन्न हुए करीब डेढ़ सौ वर्षसे अधिक समय व्यतीत हो चुका था, उस समय फिर वलभी नगरीमें देवर्द्धिगणि क्षमा श्रमणको अध्यक्षतामें श्रमण संघ इकट्ठा हुआ और पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय लिखे गये सिद्धान्तोंके उपरान्त जो जो ग्रन्थ प्रकरण मौजूद थे, उन सबको लिखाकर सुरक्षित करनेका निश्चय किया। इस श्रमण समवशरणमें दोनों वाचनाओंके सिद्धान्तोंका
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