Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
४०३ गर्दा संयम है। किन्तु केवल गाँसे ही सब दोषोंका क्षय नहीं होता। सब मिथ्यात्व अविरति आदिको जानकर ( उनका परित्याग करनेसे) आत्मा संयममें लगता है, संयममें जुटता है, संयममें स्थिर होता है। ___ यह सुनकर कालासवेसिय पुत्तने स्थविरकी वन्दना की उन्हें नमस्कार किया और बोला-भगवान् ! न जानने न सुनने, न प्राप्त होने, विस्तारसे न समझाये जाने आदिके कारण अदृष्ट, अश्रुत, अविज्ञात,अव्याकृत, अव्युच्छिन्न और अनवधारित पदोंका न मैंने श्रद्धान किया, न प्रेम किया, न मैंने उनमें रुचि की। आप जैसा कहते हैं वैसा ही हो। तब भगवान् बोले-आर्य जो कुछ मैंने कहा है उसपर श्रद्धा करो, विश्वास करो, रुचि करो। तब कालासवेसिय पुत्तने भगवान्की वन्दना करके नमस्कार किया
और बोला-मैं आपके पास चातुर्याम धर्मसे सप्रतिक्रमण पश्चमहाव्रत धारण करना चाहता हूं । देव ! इसमें रोके नहीं। __ तब कालासवेसिय पुत्तने भगवान्की वन्दना की, उन्हें नमस्कार किया और चातुर्याम धर्मसे सप्रतिकमण पञ्चमहाव्रत धारण किया। और जिसके लिये नग्नपना, मुण्डितपना, अस्नान, दन्तधावन न करना, छाता न रखना, जूता न पहिरना, भूमि पर सोना, काष्ठपर काष्ठके तख्ते पर सोना, केश लोंच, ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास, परघर गमन, लाभालाभ, अनुकूल-प्रतिकूल, बाईस परीषह और उपसर्गको सहा जाता है उस अर्थ पर आरोहण करके कालासवेसिय पुत्त सिद्ध बुद्ध मुक्त और परिनिवृत्त हो गया।
-भ० सू० ७७, १ श०,६ उ०। इसी तरह एक और गांगेय' नामक पार्थापत्यीय अनगार १-'तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्च
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