Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पूर्व-पीठिका
संघकी प्रार्थनाका अनादर करते हो इसलिये श्रमण संघ तुम्हारे साथ बारहों प्रकारका व्यवहार बन्द करता है" ।
उक्त उल्लेखोंसे जहाँ एक ओर संघके साथ भद्रबाहुकी खींचतान होने पर प्रकाश पड़ता है वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पाटलीपुत्रकी वाचनामें भद्रबाहु उपस्थित नहीं थे । इसपरसे डा० कोवी ने लिखा था कि पाटलीपुत्र नगर में जैनसंघने जो अंग संकलित किये थे वे केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही थे, समस्त जैन संघ नहीं थे, क्योंकि उस जैन संघ में भद्रबाहु सम्मिलित नहीं थे ( से० बु० ई०, जि० २२, की प्रस्ता० पृ० ४३ ) ।
हमारा विचार है कि भद्रबाहुकी अनुपस्थिति में की गई प्रथम वाचनाने संघभेदकी नींवमें रोड़ा डालनेका काम किया और
भीमें किये गये अंगोके लेखन कार्यने संघभेदकी दीवारको स्थायी कर दिया। संभवतया इसीसे दिगम्बर कथा में श्वेताम्बर सम्प्रदाय को उत्पत्ति वल्भी नगरीमें हुई बतलाई है। अतः विवादको बढ़ाने में अंगसंकलनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान होना संभव है, क्योंकि जब तक किसी नई प्रवृत्तिके पीछे शास्त्रबल नहीं रहता, तब तक उस नवीन प्रवृत्तिको एक तो बल नहीं मिलता, दूसरे पर पक्ष भी उसे परम्परा विरुद्ध मानकर उधर से 'किनाराकशी' करके बैठ जाता है । किन्तु जब उस नवीन प्रवृत्तिको शास्त्रोंके द्वारा भी पोषा जाता है तो विवादका उग्ररूप धारण कर लेना स्वाभाविक है । और ऐसे शास्त्रों के मूर्तरूप धारण कर लेने पर तो विवादका स्थायी न होना ही आश्चर्य कारक है ।
अतः दिगम्बर कथाओं में जो भद्रबाहुके समय में संघभेदकी उत्पत्ति और वल्मी में श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है, उसके मूल में अन्य बातोंके साथ अंगों की संकलना भी अवश्य
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