Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै सा० इ०-पूर्व पीठिका वर्षसे जो सिद्धान्त स्मृतिके आधारपर प्रवाहित होते आते थे, उन्हें मूर्त रूप मिल गया। शायद इसीसे वलभीका नाम दिगम्बर सम्प्रदायमें भी स्मृत रहा क्योंकि हरिषेण कथाकोश वगैरहमें वलभीमें ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है। सिद्धान्तोंके पुस्तकारूढ़ हो जानेके पश्चात् फिर कोई वाचना नहीं हुई क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। वर्तमान श्वे० जैन आगम उसी वाचना की उपज हैं।
समय सुन्दर गणिने अपने समाचारी शतकमें देवद्धि गणिके उक्त सत्प्रयत्नका वर्णन इस प्रकार किया है-'श्री' देवर्द्धि गणि क्षमा श्रमणने, द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण बहुतसे साधुओंका मरण तथा अनेक बहुश्रुतोंका विच्छेद हो जानेपर श्रुतभक्तिसे प्रेरित होकर भावि जनताके उपकारके लिए वीर निर्वाण सम्बत ९८० में श्री संघके आग्रहसे बचे हुए सब साधुओंको वलभी नगरी में बुलाया । और उनके मुखसे विच्छिन्न होनेसे अवशिष्ट रहे कमती बढ़ती, त्रुटित, अत्रुटित आगम पाठोंको अपनी बुद्धिसे क्रमानुसार संकलित करके पुस्तकारूढ़ किया। इस तरह यद्यपि मूलमें सूत्र गणधरों के द्वारा गूथे गये थे, तथापि देवर्द्धिके द्वारा पुनः संकलित
१-"श्रीदेवद्धिंगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशोत्यधिकनवशतकवर्षे जातेन द्वादशवर्षीयदुर्मिक्षवशात् बहुतरमाधुव्यापत्तौ च जातायां ""भविष्यद् भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसंघाग्रहात् मृतावशिष्ठतदाकालीनसर्वसाधून् बलम्पामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नाशिष्ठान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् श्रागमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य पुस्तकारूढा कृताः। ततो मूलतो गण धरभावितानामपि तत्संकलनानन्तरं सर्वेषामपि श्रागमानां कर्ता श्रीदेवर्द्धि गणिक्षमाश्रमण एव जातः ।"
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