Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
४६५ गया । तथा देवमूर्तियोंमें पहले वस्त्रका और फिर अँग रचनाका समावेश करके देवको भी पृथक कर दिया गया और इस तरह संघभेदका चिरस्थायी कर दिया गया।
फिर भी यह सन्तोषकी बात है कि बौद्ध धर्मके अन्तर्गत सौत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक भेदोंकी तरह जैन धर्मके अन्तर्गत तात्विक भेदोंके आधार पर दार्शनिक सम्प्रदायोंकी सृष्टि नहीं हुई। और समन्तभद्र सिद्धसेन और अकलंक जैसे दार्शनिकोंने समान भावसे अपनाया। यह कम प्रसन्नताकी बात नहीं है। - श्रुतकेवली भद्रबाहु पर्यन्त अखण्ड जिन शासनकी वैजयन्ती फहराती रही। उसके पश्चात् जिन शासन विभक्त हुआ और जैन साहित्यकी सुरक्षा तथा निर्माणकी चिन्ताने श्रुतधरों श्रुत प्रेमियोंको आन्दोलित किया। ___ उसके फलस्वरूप जो कुछ किया गया उसीका वर्णन आगे किया जाता है।
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