Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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10 सा० इ० पूर्व-पीठिका सम्प्रदायोंके गुरु भिन्न भिन्न हो गये। दिगम्बर सम्प्रदायने सवस्त्र गुरुओंको मान्य नहीं किया तो श्वेताम्बर सम्प्रदायने नग्न गुरुओं को मानना छोड़ दिया। दिगम्बर आचार्योंने यह घोषणा की कि सवस्त्र साधुको मुक्ति लाभ नहीं हो सकता तो श्वेताम्बर आचार्यों ने कहा कि वस्त्र धारण किये बिना कोई मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इस तरह दोनों के गुरु भिन्न भिन्न हो गये।
शास्त्रभेद तो श्वेताम्बरीय वाचनाओंके एकपक्षीय होनेसे ही स्पष्ट है। किन्तु गुरुभेद पूर्वक ही शास्त्र भेद हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि जब गुरु भिन्न हो गये तो जिस गुरुको नहीं मानते उसके वचनोंको मान्य कैसे किया जा सकता है। . किन्तु गुरु और शास्त्रभेद होने पर भी दोनों बहुत समय तक एक हा प्रकारकी मूर्ति की उपासना करते रहे। और इस तरह दोनोंके आराध्य चौबीस तीर्थङ्करोंकी मूर्तियां अभिन्न रहीं। किन्तु वस्त्रवादके बढ़ते हुए पोषणने अन्तमें मूर्तियोंको भी अपना शिकार बनाकर ही छोड़ा। और इस तरह गुरु और शास्त्रके साथ देवमूर्तियां भी भिन्न हो गईं।
इस प्रकार संघभेदकी तीनों सीढ़ियाँ क्रमशः स्थापित हुईं। भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात्से गुरु भेद स्थायी रूपसे स्थापित हो गया। एकपक्षीय आगमवाचनासे प्रारम्भ हुआ शास्त्रभेद वलभीमें आगमोंकी संकलना और पुस्तकारूढ़ताके साथ स्थायी हो
१-'ण वि सिझई वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो ।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥-सूत्र प्रा० । २-जै० सा० वि०, पृ. ५६ ।
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