Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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सघ भेद
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किसीकी गम्भीर क्षति पहुँची तो वह प्राचीन जैन साहित्य है, जिसे जैन परम्परामें अङ्ग या आगम कहते हैं। दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यमें अङ्गोंके विस्तारका जो महत् परिमाण दिया है, उसे पढ़कर सखेद आश्चर्य होता है। यदि उसका शतांश भाग भी शेष रहता तो आज जैन माहित्य सर्वोपरि होता और उसके द्वारा न जाने कितने ऐतिह्य और तथ्य प्रकाशमें आते । उसके साथ ही जैन परम्पराका बहुत सा इतिहास, यहाँ तक कि भगवान महावीर का बहुत सा जीवन वृत्तान्त भी लुप्त हो गया और उसमें भी सम्प्रदाय गत मतभेद उत्पन्न हो गये ।।
अतः अखण्ड जैन परम्पराके अन्तिम गुरु और भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट सम्पूर्ण द्वादशांगके अन्तिम उत्तराधिकारी श्रुतकेवली भद्रबाहुके अवसानके साथ ही साथ एक तरहसे जैन श्रुत परम्पराका ही अवसान हो गया। और दिगम्बर परम्पराका तो एकमात्र धनी-धरोहरी ही जाता रहा। इसीसे उनके प्रभावमें पाटलीपुत्रमें जो प्रथम आगमवाचना हुई कही जाती है, उसे सम्पूर्ण जैन परम्पराका समर्थन प्राप्त नहीं हो सका। और भद्रबाहुके पश्चात् दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परम्पराकी गुर्वावलियाँ सर्वथा भिन्न हो गई। और इस तरह दोनोंका साहित्य भी जुदा जुदा हो गया।
किसी भी धर्मके मूल आधार तीन होते हैं-देव, शास्त्र और गुरु । इन तीनोंके भेदसे सम्प्रदायगत अथवा धर्मगत भेदकी निष्पत्ति होती है। अर्थात् जिस धर्म या सम्प्रदायके ये तीनों
आधार भिन्न होते हैं वह एक पृथक धर्म अथवा सम्प्रदाय होता है। जैन परम्परामें प्रारम्भिक मतभेद वस्त्रको लेकर उत्पन्न हुआ। नग्न गुरुओंका उपासक सम्प्रदाय दिगम्बर कहलाया और सवस्त्र गुरुओंका उपासक सम्प्रदाय श्वेतांबर कहलाया। अतः दोनों
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