Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
४८६ कि चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु नेपालदेशके मार्गमें विराजमान हैं। संघने उन्हें लिवा लानेके लिये दो मुनियोंको भेजा। मुनियोंने जाकर निवेदन किया कि संघने आपको पाटलीपुत्र आनेका आदेश दिया है । भद्रबाहुने कहा-मैंने महाप्राण नामक ध्यानको प्रारम्भ किया है. वह बारह वर्षों में समाप्त होगा। उसके पश्चात् ही मैं आऊँगा । मुनियोंने जाकर संघसे सब वृत्तांत कहा। तब संघने दूसरे दो मुनियोंको बुलाकर आदेश दिया तुम जाकर आचार्य भद्रबाहुसे कहना कि जो श्री संघका शासन नहीं मानता उसे क्या दण्ड देना चाहिये। जब वे कहें कि उसे संघसे बहिष्कृत कर देना चाहिये तो आचार्यसे जोर देकर कहना कि तुम इसी दण्डके योग्य हो' । मुनियोंने जाकर भद्रबाहुसे उक्त बात कही और उन्होंने वही उत्तर दिया। पीछे भद्रबाहुने कुछ मुनियों को अपने पास भेजने पर उन्हें वाचना देना स्वीकार किया । संघने पाँच सौ साधुओंको उनके पास भेजा, जिनमेंसे केवल एक स्थूलभद्र ही वहाँ रुके, शेष सब उद्विग्न होकर चले आये । महा. प्राण ध्यान पूरा होने तक स्थूलभद्रने कुछ कम दस पूर्वोका अध्ययन समाप्त किया। इसके पश्चात् भद्रबाहु पाटलीपुत्र लौट आये। स्थूलभद्रसे कुछ गल्ती हो गई जिसके कारण फिर उन्होंने शेष पूर्वोका ज्ञान स्थूलभद्रको नहीं दिया और पूर्वज्ञान किसी अन्यको देनेसे भी मना कर दिया ।'
तित्थोगाली पइन्नय ( गा०७३०-७३३) में लिखा है कि भद्रबाहुके उत्तरसे नाराज होकर स्थविरोंने कहा-संघकी प्रार्थना का अनादर करनेसे तुम्हें क्या दण्ड मिलेगा, इसका विचार करो। भद्रबाहुने उत्तर दिया-मैं जानता हूँ कि संघ इस प्रकारके वचन बोलनेवालेका बहिष्कार कर सकता है। तब स्थविर बोले-तुम
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