Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पूर्व-पीठिका
पीछे से वह एक सम्प्रदाय के रूप में व्यवहृत होने लगा ।' - इं० इ० रि०, जि० १, पृ० २५६ ।
इस तरह जैन और बौद्ध उल्लेखोंसे तो गोशालकका अचेल परिव्राजक होना सिद्ध नहीं होता ।
हम लिख आये हैं कि आजीविक सम्प्रदायका संस्थापक गोशालक जैनों के कथन के अनुसार मंखलिका पुत्र था और बौद्धोंके अनुसार उसका ही नाम मक्खलि था । किन्तु गोशालकको मस्करी भी कहा जाता है । और पाणिनिके अनुसार मस्करीका अर्थ परिव्राजक होता है । इसी परसे डा० हालेका कहना है कि यतः गोशालक मंखलिपुत्त या मक्खलि ( मस्करी ) कहलाता था अतः वह प्रथम एकदण्डी था पीछे उसने महावीर के साथ रहना शुरू किया, जैसा कि डा० याकोबीका भी कथन है ।
किन्तु डा० हार्नले यह भी स्वीकार करते हैं कि मंखलिया मक्खलिका संस्कृत रूप मस्करी नही है । जैन आगमिक साहित्य में 'ख' शब्दका प्रयोग भिक्षुक जातिके लिये हुआ है किन्तु 'मस्करी' के 'मस्क' शब्दका तो कोई अर्थ ही नहीं, वह तो मस्कर से बना है | अतः यहाँ इस सम्बन्ध में भी विचार किया जाता है। 1 मस्करी और गोशालक
पाणिनि ने अपने व्याकरणमें मस्करी शब्द परिव्राजक के अर्थ में सिद्ध किया है। इसकी व्याख्या करते हुए भाष्यकार पत. ञ्जलि ने लिखा है कि मस्करी वह साधु नहीं है जो हाथ में मस्कर
१ ' मस्कर -मस्करिणौ वेणुपरिब्राजकयो:' ( ६-१-१५४ ) ।
२ ' न वै मस्करो ऽस्यास्तीति मस्करी परिव्राजकः । किं तर्हि ? मा कृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजकः । - भाष्य ( ६-१
१५४ )।
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