Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
संघ भेद
४७५
हैं, केशोंका लोंच करते हैं । उनके शरीरका समस्त चर्म फटा हुआ था, उनके पैर कठोर और चपटे हैं जैसाकि नदी किनारेके वृक्ष होते हैं' ।
अतः छठी शताब्दी के मध्यके विद्वान् वराहमिहिरने निग्रन्थोंका निर्देश अवश्य ही दिगम्बर जैनोंके लिये किया है । इसलिये प्रथम कारणसे आजीविक शब्दका प्रयोग दिगम्बर जैनोंके अर्थ में प्रयुक्त किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता ।
इसके सिवाय ईसाकी सातवीं शती के आरम्भके विद्वान् कवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में जैनोंके लिये 'आहत' शब्दका प्रयोग किया है, जो इस बातको पुष्ट करता है कि वराहमिहिर के समय से जैन लोग अथवा महावीर के निग्रन्थ सम्प्रदाय के अनुयायी तथा भक्त आर्हत (अर्हन्त देवके उपासक ) कहे जाने लगे थे क्योंकि वराहमिहिरने अर्हतां देवः' के द्वारा जैनों का निर्देश किया है । तथा बाणने मोरपिच्छ रखनेवालोंको क्षपणक' और नग्नाटक* कहा है । मोरकी पीछी केवल दिगम्बर जैन साधु ही रखते हैं, और वे नंगे ही भ्रमण करते हैं । अतः बाणके द्वारा प्रयुक्त
ing out their hair. Their skin is all cracked, their feet are hard and chapped, like rotling trees that one sees near rivers. - इं० से० जै०,
---
--
पृ० २, का टि० नं० २ | 'जैनैः श्रानैः पाशुपतैः पाराशारिभि:' - ६० च० पृ० १३६ । ३ ' शिक्षित क्षपणकवृत्तय इव मयूरपिच्छचयान् उच्चिन्वन्तः
ह० च०
a
पृ० १०४ ।
४ 'अभिमुख माजगाम शिखिपिच्छलाच्छनो नग्नाटकः ' - ६० च०,
पृ० ३२७ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org