Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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६.० सा० इ० पूर्वपीठिका दानमें जैनोंको आजीविक बतलाया है। इस भ्रमका विश्लेषण करते हुए डा० वरुआने लिखा है कि पुण्ड्रवर्धनमें जैन और
आजीविक दोनों सम्प्रदाय साथ साथ रहते थे और दोनोंके विचारोंमें तथा बाह्य रूपमें इतना कम अन्तर था कि एक बौद्ध दर्शकके लिये दोनोंमें भेद कर सकना कठिन था। (ज० डि० ले०, जि० २, पृ०७५)।
हम डा० वरुआके उक्त विश्लेषणसे सहमत होते हुए भी वह माननेमें असमर्थ हैं कि जैनों और आजीविकोंके विचारोंमें भी बहुत कम अन्तर था और इसका स्पष्टीकरण गत विवेचनसे हो जाता है। हाँ. बाह्य रूपमें विशेष अन्तर न था और इससे किसी दर्शकको दोनोंके ऐक्यका भ्रम होना स्वाभाविक था। किन्तु दोनों सम्प्रदायोंके बीचमें साम्प्रदायिक खिंचाव अवश्य था, भगवती
और सूत्रकृतांगका गोशालक सम्बन्धी विवरण इसका सूचक है ही, उत्तरकालीन दिगम्बर जैन ग्रन्थोंके आजीविक सम्बन्धी उल्लेख भी उसके पोषक हैं।
अतः आजीविकों और दिगम्बर जैनोंके ऐक्यकी कल्पनामें कोई सार प्रतीत नहीं होता । नाग्न्य आदिको लेकर भ्रम वश ही किन्हीं लेखकोंने दोनोंको एक मान लिया है। जैन आधारोंसे तो जैनों और आजीविकोंमें पारस्परिक विरोधका ही आभास मिलता है तथा उसका समर्थन शिलालेखोंसे भी होता है। जिसकी विस्तृत चर्चा डा० बनर्जी शास्त्रीने अपने आजीविक शीर्षक लेखमें (ज० वि० उ० रि० सो०, जि० १२, पृ० ५३ ) की है। उसका सारांश यहाँ दिया जाता है।
गयाके निकट जो बारबर पहाड़ियाँ हैं, ईसाकी छठी-सातवीं शतीमें मौखरि अवन्तिवर्माके समयमें प्रवर पहाड़ियाँ कही जाती
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