Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
४७७ आजीविकोंके लिये ही किया है। आजीविक सम्प्रदायके वर्तमान न रहते हुए भी उसकी प्रव्रज्याका योग बतलानेका कारण यह हो सकता है कि प्राचीन ग्रन्थोंमें योग चर्चित होगा। उसीको वराहमिहिरने अपने ग्रन्थमें भी निबद्ध कर दिया, क्योंकि उन्होंने अपने जातक' ग्रन्थोंके प्रारम्भमें यह बात स्वीकार की है कि पूर्व शास्त्रोंको देखकर मैंने अपने ग्रन्थोंको रचा है । वराहमिहिरके पश्चात् भी १३ वीं शती तकके दूसरे साहित्यकारोंके द्वारा आजीविकोंका निर्देश उसी रूप में किया हुआ देखा जाता है। उदाहरणके लिये दिगम्बर जैन ग्रन्थोंमें ही हम आजीविक सम्प्रदायका निर्देश पाते हैं । वराहमिहिरसे एक शताब्दीके पश्चात् होनेवाले दिगम्बर जैनाचार्य अकलंकने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें ( ४-२०-१०) तापसो, परिव्राजकोंके साथ आजीविकोंका भी निर्देश किया है और बतलाया है कि परिव्राजक मरकर पाँचवें स्वर्गमें और आजीविक मर कर बारहवें स्वर्ग तक जन्म लेता है उससे ऊपर निग्रन्थ ही जा सकते हैं। दसवीं शतीके जैनाचार्य नेमिचन्द्रने अपने त्रि० सा० ( गा० ५४७ ) में भी उक्त कथन करते हुए आजीविकोंका निर्देश किया है। जैनाचार्य वीरनन्दिके आचारसारमें (११-१२८) उक्त कथनको दोहराते हुए आजाविकोंका निर्देश किया है। इस तरहसे आजीविकोंका आजीविक रूपमें ही ईसाकी बारहवीं शती तकके दिगम्बर जैन ग्रन्थोंमें उल्लेख मिलता है। अतः आजीविकों और दिगम्बर जैनोंके ऐक्यकी कल्पना भ्रमजन्य है। इस तरहका भ्रम नया नहीं है। डा० वरुआने अपने उक्त लेखमें लिखा है कि कौटिल्यार्थशास्त्रमें बौद्धोंको आजीविक बतलाया है, तथा दिव्याव१ 'होराशास्त्रं वृत्तैर्मया निबद्ध निरीक्ष्य शास्त्राणि ।।
यत्तस्याप्याभिः सारमहं संप्रवक्ष्यामि ॥ २ ॥ ल• जा० ।
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