Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
४३६ जहाँ कहीं उनमें 'आजीविय' या 'आजीवक' नाम आता है, स्पष्ट रूपसे या निर्विकल्प रूपसे वह गोशालक और उसके शिष्यों अथवा अनुयायिओंसे सम्बन्ध रखता है।' ___ अतः प्रारम्भमें गोशालकके परिव्राजक सम्प्रदायके मुखिया होनेकी डा० याकोबीकी धारणा साधार प्रतीत नहीं होती।
क्या गोशालक पापित्यीय था ? देवसेनके दर्शनसार ( वि० सं० ६६० ) में जैसे प्रारम्भमें बुद्धको पार्श्वनाथकी परम्पराके निग्रन्थका शिष्य बतलाया है वैसे ही मस्करीपूरण साधुको भी पाश्व नाथकी परम्परामें दीक्षित हुआ बतलाया है। लिखा है-'महावीर भगवानके तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थङ्करके संघके किसी गणीका शिष्य मस्करीपूरण नामका साधु था। उ: ने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया। अज्ञानसे मोक्ष होता है। मुक्त जीवोंको ज्ञान नहीं होता। जीवोंका पुनरागमन नहीं होता वे मरकर भव भवमें भ्रमण नहीं करते।'
पं० आशाधरने अनगारधर्मामृतकी टीका ( वि० सं० १३०० । पृ०६) में लिखा है-'मस्करीपूरण नामक एक ऋषि पार्श्वनायके तीर्थमें उत्पन्न हुआ था। जब भगवान महावीरको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ तो वह उनके समवसरण में इस इच्छासे गया कि मेरे जानेसे इनकी बाणी खिरेगी। किन्तु वाणी नहीं खिरी । तब उसे यह ईर्षा हुई कि अपने शिष्य गौतमको उपस्थितिमें तो १-'सिरिवीरणाहतिहत्थे बहुस्सुदो पाससंघगणिसोसो।
मक्कडिपूरण साहू अण्णाणं भासए लोए ॥२०॥ अण्णाणादो मोक्खो णाणं णत्थीति मुत्तजीवाणं । पुणरागमनं भमणं भवे भवे णत्थि जीवस्स ।।२१॥'-द० सा०।
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