Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अर्थ होता है कि वस्त्रको पास रखे और आवश्यकता हो तो उसका उपयोग कर ले । ऐसा अर्थ करनेसे श्वेताम्बरीय' ग्रन्थों में ही जो पार्श्वनाथके धर्मको सचेन और अचेल दोनों बतलाया है उसकी संगति भी बैठ जाती है। तथा क्यों पार्श्वनाथने 'सान्तरोत्तर और महावीरने अचेलक धर्म रखा, इसका जो समाधान गौतमने किया, उसकी संगति बैठ जाती है। ____ आचारांग सूत्र के अनुसार वस्त्रधारणके तीन कारण बतलाये हैं-परीषह सहने में असमर्थता, इन्द्रियविकार और लज्जाशीलता। ऐसे असमर्थ साधुओंको गुह्य प्रच्छादनकी या वस्त्रधारणकी
आज्ञा पार्श्वनाथके धर्ममें रही हो यह संभव माना जा सकता है। क्योंकि बौद्ध उल्लेखोंसे भी निर्ग्रन्थोंके सवस्त्र होनेका समर्थन मिलता है। किन्तु हमें यह न भुला देना चाहिये कि महावीरके समयमें पार्श्वपत्यीयोंमें शिथिलाचारने ही नहीं, किन्तु दुराचार तकने प्रवेश कर लिया था। डा० याकोवीने भी इसे मान्य किया था । इसका वर्णन पीछे किया भी जा चुका है। अतः महावीरके समयमें वर्तमान पार्खापत्यीयोंके आचरणके आधार परसे यह नहीं कहा जा सकता कि पार्श्वनाथने उसी आचार धर्मका नियम अपने साधुओंके लिये रखा था। और बौद्ध पिटक साहित्यमें जिन निर्ग्रन्थोंकी चर्चा है, डा० याकोबीके अनुसार भी वे प्रायः पार्श्वनाथीय परम्पराके निर्ग्रन्थ थे।
किन्तु बौद्ध ग्रन्थों में ही ऐसे भी निग्रन्थोंका उल्लेख है जो नंगे रहते थे। यहाँ हम कतिपय बौद्ध उल्लेखोंको देते हैं
१-'श्राचेलको धम्मो पुरिमस्स य पछिमस्स य जिणस्स ।
मझिमगाण जिणाणं होई सचेलो अचेलो य ।।१२।।' पञ्चा० ।
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