Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका की सुरक्षा पर ही विशेष ध्यान देते हैं, ये बातें बतलाती हैं कि डा० हानलेने दिगम्बर ग्रन्थोंका अवलोकन नहीं किया था तथा संभवतया शीलांककी टीकाके आधार पर उक्त बातें लिख दी हैं। अपने मतके उत्तराधके समर्थन में उन्होंने Jas, Burgess के एक लेख 'दिगम्बर जैन एकोनो ग्राफी' (इं० ए०, जि० ३२, पृ०४६०) का उल्लेख किया है। वर्गेसने अपने लेखमें लिखा है कि 'श्वेताम्बर लोग सब प्रकारके प्राणियोंके जीवनके प्रति अत्यन्त सावधान होते हैं, जबकि दिगम्बर केवल परिमित रूपसे ही वैसे होते हैं। ___इस लेखकने ऐसा किस आधार पर लिखा हम नहीं कह सकते; क्योंकि उसने अपने उक्त लेखमें अपने कथनके समर्थनमें कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया। दिगम्बर परम्परामें श्रावकके ग्यारह भेद हैं । थोड़ासा हेरफेरके साथ श्वेताम्बर परम्परामें भी उक्त भेद गिनाये हैं। उन्हें श्रावक प्रतिमा कहते हैं । श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार तो प्रतिमारूप श्रावक धर्म विच्छिन्न हो गया, किन्तु दिगम्बर परम्परामें उसकी प्रवृत्ति आज भी है। श्रावकके उन ग्यारह भेदोंमें पाँचवां भेद सचित्त' त्याग है। श्वेताम्बरोंमें इसका स्थान सातवां हैं। इसका पालक श्रावक सचित्त जल, पत्र पुष्प, बीज वगैरह का सेवन नहीं करता। ऐसी स्थितिमें जब पञ्चम
१ 'मूल फल शाक शाखा करीर कन्द प्रसून वीजानि । नामानि योति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ।।१४१।।
-रत्न श्रा०॥ "हरिताङ्करबीजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रतकृपश्चतुनिष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ॥
-सागार० ७ अ०८ श्लो.
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