Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
नमूना देखिये - सूत्र ०१ ( १ श्रु०, ३०, ४ उ० ) में प्रारम्भमें शीतल जल, बीज और हरी वनस्पतिका भक्षण करनेवालोंकी चर्चा करके लिखा है कि स्त्रीके वशमें रहने वाले और जैन शास्त्र से विमुख मूर्ख अनार्य पार्श्वस्थ ऐसा कहते हैं— जैसे फोड़ेको दबा देना चाहिये वैसे ही समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करना चाहिये। इसमें दोष क्या है ? जैसे भेड़, पक्षी बिना हिलाये जल पीते हैं वैसे ही समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करनेमें क्या दोष है ? इस प्रकार मैथुन सेवनको निरवद्य बतलाने वाले मिध्यादृष्टि अनार्य पार्श्वस्थ हैं। प्रारम्भमें जो शीत उदक, हरे बीजका सेवन करनेवालोंकी चर्चा की है, वह स्पष्ट ही गोशालकका मत है और अन्त में जो पार्श्वस्थों का स्त्री विषयक मन्तव्य दिया है, वह भी गोशालक के अनुकूल है। अतः गोशालक प्रारम्भमें पार्श्वनाथकी परम्परा में दीक्षित हुआ हो यह सम्भव है । तथा वह पार्श्वपत्यीयोंके प्रभाव में हो यह बहुत कुछ सम्भव जान पड़ता है ।
आजीविक सम्प्रदाय नग्न रहताथा, इसमें तो कोई विवाद ही नहीं है । किन्तु उत्तरकाल के कतिपय लेखकोंने तो नग्नताको
१ हंसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणा ।
उदय सिद्धिमावन्ना तत्थ मंदो विसीयति ॥ | १ ||
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+ + एवमेगे तु पात्था, पन्नवंति णारिया | इत्थीवसं गया बाला जिणसास परम्हा ||
जहा गंड पिलागं वा परिपीलेज मुहुत्तगं । एवं विन्नवत्थी दोसो तत्थ को सिश्रा ॥ १० ॥
- सू० १ ० ३
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०, ४ उ० ।
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