Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के पास आया था और कायभावनामें आजीविकोंको और केवल चित्तभावना वालोंमें गौतम बुद्धको मानता था। आनन्दके कथन से यह भी स्पष्ट है कि वह वकवादी और पंडितमानी था। अतः प्रथम तो निग्रन्थोंकी बुराई करना उसे इष्ट नहीं हो सकता । दूसरे यह भी सम्भव है कि वह निम्रन्थोंको भावितकाय और भावितचित्त मानता हो। इसलिये उसने निग्रन्थोंकी कायभावनाकी चर्चा न करके उनके विरोधी आजीविकोंकी चर्चा की हो। अतः उसके वार्तालाप परसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि पाश्वनाथके धर्ममें कठोर आचार नहीं था और महावीरने ही उसे स्थान दिया। हाँ, पार्श्वनाथके अनुयायी निग्रन्थों में जो शिथिलाचार आ गया था, उसे दूर करने के लिये महावीरने अपने निप्रन्थ सम्प्रदायके लिये कठोर आचारकी व्यवस्था की हो यही सम्भव प्रतीत होता है किन्तु वे नियम गोशालकसे लिये हों, यह तो किसी भी तरह सम्भव प्रतीत नहीं होता। ___ डा० याकोवीने अपने विद्वत्तापूर्ण निबन्ध 'महावीर और उसके पूर्ववर्तियों पर' के अन्तमें स्वयं यह बात स्वीकार की है कि दिगम्बर प्राचीन हैं और उस समयके सर्व शास्ताओं पर जैनधर्मका प्रभाव था। वह लिखते हैं-छै तीर्थङ्कर शीर्षक 'जेम्स डी 1-In James d'alwis praper on the 'six Tirthakas'
the 'Digambaras' appear to have been regarded as an old order of ascetics, and all of those heretical teachers betray the influence of jainism in their doctrines or religious practices, as we shall now point out.
-Ind. Ant. जि०६ ।
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