Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
४२३ प्राचार्य बोले-इसमें बहुत उपसर्ग हो सकते हैं यदि सह सको तो ठीक है। उसने स्वीकार किया। सब साधु उसके पीछे हो गये। जब उस वृद्धने उस मृत साधुको अपने हाथोंमें उठा लिया तो सिखाये हुए बालकोंने साधुकी धोती खोल दी। लज्जासे पीड़ित होकर ज्योंही वह उस शवको नीचे रखने लगा तो दूसरे साधुओं ने कहा-नीचे मत रखो। इतनेमें किसीने तन्तु द्वारा एक चालपट्टक उसकी कटिमें बाँध दिया। वह लज्जावश उस शवको द्वार तक ही पहुँचाकर लौट आया और आचार्यसे बोला-पुत्र ! आज बड़ा उपसर्ग हुआ । तब आचार्य बोले-इन्हें धोती लाकर पहना दो। वृद्ध बोला-जो हुआ सो हुआ, धोती रहने दो, चोलपट्टक ही ठीक है। __अतः चोलपट्टक मात्रके रहते हुए उपबरित नाग्न्य परीषह हो सकती है किन्तु दो तीन वस्त्रोंके रहते हुए तो उपचरित नाग्न्य परीषह भी संभव नहीं है, अस्तु । ___ इन्हीं आर्य रक्षितके स्वर्गवासके पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदायमें धीरे धीरे उपधियोंकी संख्या वृद्धि हुई, यह बात श्वेताम्बर विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। मुनि कल्याण विजय जीने लिखा है-'आर्य रक्षितके स्वर्गवासके पश्चात् धीरे धीरे साधुओंका निवास बस्तियों में होने लगा। और इसके साथ ही नग्नताका भी अन्त होता गया। पहले बस्तीमें जाते समय बहुधा जिस कटिबन्धका उपयोग होता था वह बस्तीमें बसनेके बाद निरन्तर होने लगा। धीरे धीरे कटिवस्त्रका भी आकार प्रकार बदलता गया। पहले मात्र शरीरका गुह्य अंग ही ढकनेका विशेष ख्याल रहता
१-श्र० भ० म०, पृ० २६२ ।
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