Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पोठिका
में उसका जन्म हुआ था इसलिये उसे गोशालक कहते थे । जब गोशालक युवा हुआ तो वह भी अपने पिताकी तरह हाथमें चित्रपट लेकर अपना जीवन निर्वाह करने लगा ।
उस समय भगवान् महावीर तीस वर्ष तक घर में रहकर प्रत्र - जित हो चुके थे। और प्रथम वर्षावास बिताकर द्वितीय वर्षावास नालन्दा के बाहर तन्तुवाय शाला में बिताते थे । उस समय मंखलिपुत्र गोशालक हाथमें चित्रपट लिये, गाँव गाँव में भिक्षा मांगता हुआ वहाँ आया, और अन्यत्र स्थान न मिलने से उसी तन्तुवाय शाला में 'भाण्ड' रखकर ठहर गया ।
एक मासके उपवासके पश्चात् भगवान महावीर पारणा के लिये राजगृही गये। वहाँ आहार होनेके उपलक्ष में पञ्चाश्चर्य हुए । सब लोगों में इसीकी चर्चा थी । गोशालक ने भी यह बात सुनी, और उसकी सत्यताका निर्णय करनेके लिये वह राजगृही गया । वहाँसे लौटकर वह महावीर भगवानके पास आया और विधिपूर्वक नमस्कार करके बोला- आप मेरे गुरु हैं और मैं आपका शिष्य हूं । भगवान् चुप रहे, कुछ उत्तर नहीं दिया ।
एक दिन भगवान वहाँसे विहार कर गये । गोशालकने उन्हें सर्वत्र खोजा । न मिलने पर पुनः उसी तन्तुवाय शाला में आया और अपने वस्त्र, भाण्ड, जूते, चित्रपट वगैरह एक ब्राह्मणको दान कर दिये और दाढ़ी मूँछ तथा सिरके बाल मुँड़ा लिये ।
वहाँसे निकलकर घूमता फिरता वह कोल्लाग सन्निवेश में आया । उस समय महावीर यहीं ठहरे थे और सर्वत्र उनकी ही चर्चा थी । उसे सुनकर गोशालकने सोचा - धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीरकी जैसी ऋद्धि, युक्ति, यश, बल, वीर्य,
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