Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका था पर बादमें सम्पूर्ण नग्नता ढांक लेनेकी जरूरत समझी गई और उसके लिये वस्त्रका आकार प्रकार भी बदलना पड़ा। फलतः उसका नाम कटिबन्ध मिटकर चुलपट्ट-छोटा वस्त्र पड़ा।'
यह तो हुआ वस्त्रके विषयमें। अन्य उपाधियोंके विषयमें वे लिखते हैं - 'पहले प्रति व्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था। पर
आर्य रक्षित सूरिने वर्षाकालमें एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखनेकी जो आज्ञा दे दी थी उसके फल स्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय उपकरण हो गया। इसी तरह झोलीमें भिक्षा लानेका रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ, जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणोंकी वृद्धि हुई। परिणाम स्वरूप स्थविरोंके कुल १४ उपकरणोंकी वृद्धि हुई, जो इस प्रकार है-१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन ४ पात्र प्रमार्जनिका, ५ पटल, ६ रजत्राण, ७ गुच्छक, ८-६ दो चादरें, १० ऊनी वस्त्र ( कम्बल ) ११ रजोहरण, १२ मुख वस्त्रिका, १३ मात्रक और १४ चोलपट्टक। यह उपधि औधिक अर्थात् सामान्य मानी गई और आगे जाकर इसमें जो उपकरण बढ़ाये गये वे 'औपग्रहिक' कहलाये । औपाहिक उपधिमें संस्तारक, उत्तर पट्टक, दंडासन और दंड, ये खास उल्लेखनीय हैं। ये सब उपकरण आजके श्वेताम्बर जैन मुनि रखते हैं।'
आचार्य हरिभद्रने (ई० ७२०-७८०) अपने संबोध' प्रकरणमें अपने समयके चैत्यवासी कुगुरुओंका वर्णन करते हुए लिखा है कि वे केशलोच नहीं करते, प्रतिमा धारण करते शरमाते हैं । शरीर परका मैल उतारते हैं, पादुकाएँ पहिनकर फिरते हैं और बिना कारण कटि२-'कीवो न कुणइ लोयं लजइ पडिमाइ जल्लमुवणेई ।
सोवाहणो य हिंडइ बंधइ कटिपट्टयमकज्जे' ॥३४॥
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