Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका परीषहके समर्थनमें दिये हुए आर्यरक्षितके उदाहरणसे भी होता है। कथा इस प्रकार है-आचार्य आयरक्षितने अपनी माता, भार्या भगिनी आदि सभी स्वजनोंको साध्वी बना दिया किन्तु उसके पिताने समझाने पर भी लज्जावश साधु पद स्वीकार नहीं किया। वह कहता-कैसे श्रमण बनें ? यहाँ मेरी पुत्रियाँ हैं, बहनें हैं, नातनी हैं । इनके आगे मैं नंगा नहीं हो सकता। जब आचार्यने बहुत कहा तो वह बोला-'यदि मुझे दो वस्त्र, कमंडल छाता, जूता और यज्ञोपवीतके साथ प्रव्रजित कर सकते हो तो मैं साधु बनने के लिये तैयार हूँ ।' आचार्यने उसकी बात मानकर उसे दीक्षा दे दी। ___ एक दिन आचार्य साधु संघके साथ चैत्य वन्दनाके लिये गये । वहाँ पहलेसे सिखाकर तैयार किये गये बालकोंने कहा-'इस छाते वाले साधुके सिवा हम सब साधुओंकी वन्दना करते हैं । वह वृद्ध बोला—इन्होंने मेरे पुत्र पौत्र सबकी वन्दना की। मेरी वन्दना नहीं की। क्या मैंने दीक्षा नहीं ली ? तब बालक बोलेदीक्षा ली होती तो छाता कमण्डलु वगैरह तुम्हारे पास कैसे होता ? वृद्धने प्राचार्यसे कहा-पुत्र ! बालक भी मेरी हँसी करते हैं। अतः मैं छाता नहीं रखू गा। इसी तरह प्रयत्न करके धोतीके सिवाय सब चीजोंका त्याग वृद्धसे करा दिया गया। किन्तु किसी
भी तरह वह धोती त्यागने के लिये तैयार नहीं हुआ। ___ एक दिन एक साधुका स्वर्गवास हो गया। तब आचार्यने वृद्धसे धे.तीका त्याग करानेके लिये अन्य साधुओंसे कहा-जो साधु इस मृत साधुको कन्धों पर उठायेगा , उसे बड़ा पुण्य होगा। वृद्धने पूछा-पुत्र ! क्या इससे बहुत निर्जरा होगी।
१-उत्त०, २ अ०, पृ० २३ ।
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