Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
संघ भेद
४२१ तो तभी सता सकती है जब पुरुषेन्द्रिय भी निरावरण हो । किन्तु नाग्न्य परीषह जैसे स्पष्ट शब्दके अर्थमें भी जो खींचातानी की गई है उसका एक उदाहरण यहाँ दिया जाता है।
तत्त्वार्थ सूत्रके व्याख्याकार श्री सिद्धसेन गणिने लिखा है'नाग्न्य परीषहका यह आशय नहीं है कि कोई उपकरण ही न रखा जाये, जैसे कि दिगम्बर साधु होते हैं। किन्तु प्रवचनमें कहे हुए विधानके अनुसार नागन्य होना चाहिये।' बीचमें शिष्य प्रश्न करता है कि साधुके दस कल्पोंमें 'आचेलक्य' कल्प भी तो भावश्यक है ? उसका उत्तर देते हुए गणि जी कहते हैं-'तुम्हारा कहना ठीक है किन्तु वह आचेलक्य जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार करना चाहिये। तीर्थङ्करकल्प-जिनकल्प एक भिन्न ही है, तीर्थङ्कर जन्मसे तीन ज्ञानके धारी होते हैं और चारित्र धारण करने पर चार ज्ञानके धारी होते हैं। इसलिये उनका पाणिपात्र भोजीहोना और एक देवदूष्य धारण करना उचित है। किन्तु साधु तो उसके द्वारा उपदिष्ट आचारका पालन करते हैं, जीर्ण, खण्डित,
और समस्त शरीरको ढांकनेमें असमर्थ वस्त्र ओढ़ते हैं, इस प्रकार वस्त्र रखते हुए भी वे अचेलक ही हैं। जैसे नदी उतरते समय सिर पर कपड़ा लपेटे हुए मनुष्य सवस्त्र होने पर भी नग्न कहाता है वैसे ही गुह्य प्रदेशको ढांकनेके लिये चोलपट्ट धारण करने वाला साधु भी नग्न ही है।' ___ मालूम होता है गणि जीके समयमें चोलपट्ट धारण करनेकी परम्परा थी। इसीसे उन्होंने वस्त्रधारीके नग्न परीषहका समर्थन नहीं किया। किन्तु चोलपट्ट रहते हुए अन्य परीषह तो हो सकती हैं किन्तु नाग्न्य परीषह नहीं हो सकती। इसका समर्थन नाग्न्य
१-सूत्र ६-६ की व्याख्या ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org