Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका
“इस प्रकार सु-आख्यात धर्मवाला और आचार का परिपालंक जो मुनि कर्मबन्धके कारण कर्मोंको छोड़कर अचेल - वस्त्ररहित रहता है उस भिक्षुको यह चिन्ता नहीं सताती, मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है वस्त्र भागूँगा या जीर्ण वस्त्रको सीने के लिये धागा मागूँगा, सूई मागूँगा, फटे वस्त्रको सीऊँगा, यदि वस्त्र छोटा हुआ तो उसमें अन्य वस्त्रको जोड़कर बड़ा करूँगा, बड़ा हुआ तो फाड़कर छोटा करूँगा तब उसे पहनूंगा या ओहूँगा । अथवा भ्रमण करते हुए उस अचेल भिक्षुको तृणस्पर्श होता है, ठंड लगती है, गर्मी लगती है, डांस मच्छर काटते हैं । अचेलपने में - लाघव मानता हुआ वह भिक्षु परस्परमें अविरुद्ध अनेक प्रकारकी परीषहों को सहता है । ऐसा करनेसे वह तपको भले प्रकार धारण करता है । जैसा भगवानने कहा है उसे ही सम्यक जानो । इस प्रकार चिरकाल तक संयमका पालन करनेवाले महावीर भगवानने भव्यजीवोंको जो तृणस्पर्श आदिका सहन करना बतलाया है उसे सहन करो || सू० १८२ ।'
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(१) “एयं खु मुणी श्रायाणं सया सुक्खायधम्मे विहूयकप्पे निज्झोसइत्ता जे चेले परिवुसिए तस्स गं भिक्खुस्त नो एवं भवइ - परिजुए मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूइं जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, वुक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाणिस्सामि । अदुवा तत्थ परिक्कमंतं भुजो अचेलं तगफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउकासा फुसंति, दंसमसकफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ चेले लाघवं श्रागममाणे । तेवे से अभिसमन्नागए भवइ, जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा, सव्वश्रो, सव्वत्ताए संमतमेव समभिजाणिजा । एवं afi महावीराणं चिररायं पुव्वाइं वासाणि रोयमाणं पास हिया • सियं ॥ सूत्र १८२ ॥”
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