Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका
आचारांग सूत्रको ही लेना उचित समझते हैं क्योंकि उसमें मुनियोंके प्रचारका वर्णन है
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि मुनियोंके दस कल्पों में एक 'कल्प अचेलक्य है और एक कल्प पञ्च महाव्रत है । हिंसाका त्याग, असत्यका त्याग, अदत्तका त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रहका त्याग ये पाँच महाव्रत हैं । अचेलक्यको परिग्रह त्यागसे अलग गिनाया है । आचारांग लोकसार नामक पाँचवें अध्ययन में परिग्रहके त्यागका उपदेश देते हुए लिखा है - "लोकमें जितने परिप्रह वाले हैं उनकी परिग्रह अल्प हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन, वे सब इन परिग्रह वाले गृहस्थों में ही अन्तभूत होते हैं । इन परिग्रह वालोंके लिये यह परिग्रह महाभय का कारण है । संसारकी दशा जानकर इसे छोड़ो । जो इस परिप्रहको जानता भी नहीं है उसे परिग्रहसे होनेवाला भय नहीं होता ' ।'
१
आगे भी सूत्र १५२ में इसी बातका समर्थन किया है कि. लोक में जितने भी अपरिग्रही साधु हैं वे सब अल्प परिग्रहका भी त्याग कर देने पर ही अपरिग्रही होते है ।
आचारांगके उक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि अपरिग्रही साधके लिये थोड़ा सा भी परिग्रह रखना उचित नहीं माना गया । ऐसी
१ - 'श्रावंती केयावंती लोगंसि परिग्गद्दा वंती से अप्पं वा बहु वा अणु ं वा थूलं वा चित्तमंत वा चित्तमंतं वा एएसु चेत्र परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महव्भयं भवइ, लोगवितं च गं उवेहाए, एए संगे वियात्रा ।। १५० ।। '
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