Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० ३०-पूर्व पीठिका सकता उसको यदि कोई भोजन लाकर दे तो उसे लौटा देना चाहिये। आगेके सूत्रमें ऐसे रोगी साधुके लिये भक्तपरिज्ञाके द्वारा जीवन त्याग देना आवश्यक बतलाया है किन्तु आचार खण्डन करनेका निषेध किया है । आगे लिखा है
'जो भिक्षु अचेल संयमको धारण करता है उसे यदि यह विचार आये कि मैं तृण स्पर्शकी बाधा सह सकता हूँ, शात स्पर्श की बाधा सह सकता हूं, उष्ण स्पर्शकी बाधा. सह सकता हूँ, डांस मच्छरकी बाधा सह सकता हूं किन्तु लज्जाके प्रच्छादनको छोड़ने में असमर्थ हूं तो वह कटिबन्ध-लंगोटी धारण करता है।' ___ इस तरह आचारांगमें वस्त्रधारी साधुके लिये भी मात्र शीत ऋतुमें तीन वस्त्रोंका विधान किया है और प्रीष्मऋतुमें संतरुत्तर अथवा ओमचेल अथवा एकशाटक अथवा अचेल ही रहनेका निर्देश किया है। ___ स्थानांग में पाँच बातोंको लेकर अचेलको प्रशस्त बतलाया है- प्रति लेखना अल्प होती है, २ प्रशस्त लाघव रहता है, विश्वास करने योग्य रूप है, तपकी अनुज्ञा है और विपुल इन्द्रिय निग्रहका कारण है।
तथा स्थानांग में भी वस्त्र धारण करनेके तीन कारण बतलाये हैं-१ लज्जा निवारण, ग्लानि निवारण और परीषह निवारण
१-सूत्र २२० ।
२-पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवह । तं जहा-अप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुण्णाए, विउले इंदियनिग्गहे । (सू० ४५५)-स्था० ५ ठा०, ३ उ०
३-तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेजा । तं०-हिरिपत्तियं, दुगुंछापत्तियं परीसहपत्तियं ।। १७१ सू०।-स्था।
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