Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
४१८
जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका साड़ी बुनकर दो, मैं नंगी फिरती हूं। वैसे ही साधु भी अल्प, जीर्ण और निस्सार वस्त्र धारण करनेके कारण अचेल कहा जाता है।
इसी तरह 'दशवैकालिकमें एक गाथा आई है जिसमें बतलाया है कि नग्न साधुको आभूषणोंसे क्या प्रयोजन ? इस गाथा के 'नगिणस्स' शब्दका अर्थ चूर्णिकारने तो नग्न ही किया है। यथा-'नगिणो णग्गो भएणइ'। किन्तु टीकाकार हरिभद्र सूरिने नग्नके उचरितनग्न और निरुपचरित नग्न दो भेद करके कुचेलवान साधुको उपचरितनग्न और जिनकल्पीको निरुपचरित नग्न कहा है। ___ इस तरह अचेलका उपचरित अर्थ जीर्ण फटा हुआ और निस्सार कुचेल अर्थ करके इस प्रकारके वस्त्रधारी साधुको उपचार से अचेल कहा गया। किन्तु जब इस प्रकारका कुत्सित वस्त्र अरुचिकर प्रतीत हुआ तो अचेलका अर्थ अल्पमूल्यचेल ( कम कीमती वस्त्र ) कर दिया गया। अर्थात् जो न फटा हो, न जीर्ण हो, न कुत्सित हो, किन्तु कम कीमतका हो, ऐसे वस्त्रधारी साधु भी अचेल ही हैं।
इस तरह आचारांगसूत्र वृत्ति, स्थानांगसूत्रवृत्ति, उत्तराध्ययन्सूत्रवृत्ति, विशेषावश्यक भाष्य सवृत्ति; वृहत्कल्प भाष्य, पञ्चाशक, जीतकल्प, प्रवचन सारोद्धार आदि सभी श्वेताम्बराय ग्रन्थोंमें अचेलताके आश्रयसे सचेलताका ही पोषण मिलता है, जो कि आचारांगके प्रतिकूल है । हम पहले लिख आये हैं कि आचारांग १-नगिणस्स वा वि मुण्डस्स दीहरोमनहसिणो ।
मेहुण-उवसंतस्स किं विभूसाई कारिनं ॥३४॥ २-'नग्नस्य वापि' कुचेलवतोऽप्युपचरितनग्नस्य । निरुपचरित
नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रम् ।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org