Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
३७३ किंतु भद्रबाहु गणिके शिष्य आचार्य शांति और उनके शिष्य जिनचन्द्रका पता श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परामें नहीं लगता। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परामें शांतिसूरि' और शांतिचन्द्र गणि नामके प्राचार्य हुए , किंतु वे देवसेनके पश्चात् हुए हैं। इसी तरह जिनचन्द्र नामके भी आचार्य श्वेताम्बर परम्परामें हुए हैं। किन्तु वे भी विक्रमकी ११वीं और १५वीं शताब्दीमें हुए हैं।।
हाँ, विक्रमकी सातवीं शतीमें जिनभद्र गणि क्षमा श्रमण नामके एक प्रसिद्ध जैनाचार्य श्वेताम्बर परम्परामें हो गये हैं, जिन्होंने अपने विशेषावश्यक भाष्यमें वस्त्रपात्रवादका खूब समर्थन
१-'वि० षरणवत्यधिक सहस्र १०६६ वर्षे श्रीउत्तराध्ययन टीका• कृत थिरापद्र गच्छीय वादिवेताल श्री शान्तिसूरिः स्वर्गमाक्' ।
-तपा० पट्टा० ( पट्टा० समु० पृ० ५४ ) मुनि कल्याण विजय जीने 'वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना' (पृ० ११७ ) में एक गाथा उद्धृत की है जिसका भाव यह है कि युग प्रधान तुल्य वादिवेताल शान्तिसूरिने वालभ्य संघके कार्यके लिये बल भी नगरीमें उद्यम किया है ।' मुनि जीका अनुमान है कि वलभीमें जो देवर्द्धिगणिने सम्मेलन बुलाया उसमें एक परम्पराके उपप्रमुख वादि वेताल शान्तिसूरि थे। शायद इन्हीं शान्तिसूरिसे उक्त कथामें तात्पर्य हो।
२-पहा० समु०, पृ० ७५-७६ । ३-देखो-जिण चंद सूरि' शब्द अभि० राजे । ४-मण-परमोहि-पुलाए' श्राहार-खवग-उवसमे कप्पे । संजमतिय-केवलि सिझणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥२५६३॥
-विशे० भा० ।
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