Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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सघ भेद
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एक जैन साधु बिल्कुल उसी रूपमें अङ्कित है जिस रूपका निर्देश कथाकोशमें किया गया है। और उसे जैनयति कृष्णकी मूर्ति बतलाया है। 'जैन साहित्यनो इतिहास' में उसके सम्बन्ध में इस प्रकार परिचय दिया गया है
'आ ऐक जैन स्तूप नो भाग छे के जे उक्त मथुरानी कंकाली तीला टेकरीमांथी निकलेल छे । ते स्तूपना वे भाग पाडेला छे । उपलो भाग सांकड़ो छे अने तेना मध्यमां स्तूपनी आकृति छे
स्तूपनी बने बाजुए जिननी बच्चे श्राकृतिओ छे । कुल ते चार आकृति ( मूर्ति ) छेल्ला चार तीर्थङ्कर नमि, नेमि, पार्श्व ने वर्धमाननी छे। नीचे ना भागमां कहनी मूर्ति छे के जेना मानमां श्रा स्तूप बनाववामां आव्यो हतो | कहनी मूर्तिने वस्त्र पहेरावेलां होता थी ते श्व ेताम्बर मूर्ति मानी शकाय । आमां आवेल मूल लेख कोई अनिर्णीत लिपिमां छे । आरंभमां ६५ नी साल होवानुं जणाय छे के जे बखते वासुदेवनु राज्य हतुं ।'
इसमें बतलाया है कि नीचे के भागमें करहकी मूर्ति है जिसके सन्मानमें यह स्तूप बनाया गया। करहकी मूर्ति वस्त्र पहिने होने से उसे श्वेताम्बर मूर्ति कहा जा सकता है। इसमें का मूल लेख किसी ऐसी लिपिमें है जिसका निर्णय नहीं हो सका, सम्वत् ६५ के साल में जब वासुदेवका राज्य था तबकी यह होनी चाहिये ।'
इसमें श्री देसाई जीने करहकी मूर्तिको वस्त्र पहिने होनेसे श्वेताम्बर होना तो स्वीकार्य कर लिया किंतु उसके वस्त्र धारण के | ढंगके विषय में कुछ नहीं लिखा । श्री चिम्मनलाल शाहने भी
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१ - भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च । गृहीत्वा नतमाहारं कुरुध्वं
० ना० इं०
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भोजनं दिने ॥ ५६ ॥
- हरि० क० को०, पृ० ३१८
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