Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इस विषयमें मौन धारण कर लिया है। किन्तु श्री वुहलरने (इं० एण्टि०, जि० २, पृ० ३१६ ) लिखा था-नेमिष देवताके बाएँ घुटनेके पास एक छोटी सी आकृति नंगे मनुष्यकी है जो बाएँ हाथमें वस्त्र होनेसे तथा दाहिना हाथ ऊपरको उठा होनेसे एक साधु मालूम होता है।
लखनऊ संग्रहालयके तत्कालीन अध्यक्ष डा. वासुदेव शरण अग्रवालने उक्त शिलापट्टके सम्बन्धमें लिखा था-पट्टके ऊपरी भागमें स्तूपके दो ओर चार तीर्थङ्कर हैं, जिनमेंसे तीसरे पाश्वनाथ ( सर्पफणालंकृत ) और चौथे संभवतः भगवान महावीर हैं। पहले दो ऋषभनाथ और नेमिनाथ हो सकते हैं। पर तीर्थङ्कर मूर्तिर्योंपर न कोई चिन्ह है और न वस्त्र । पट्टमें नीचे एक स्त्री
और उसके सामने एक नग्न श्रमण खुदा हुआ है। वह एक हाथ में सम्मानी और बाएँ हाथमें एक कपड़ा ( लंगोट ) लिए हुए है, शेष शरीर नग्न है। (जै० सि० भा०, भाग १०, कि० २, पृ० ८० का फुटनोट)।
चित्रके देखनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कण्हने बाएँ हाथसे वस्त्र खण्डको मध्यसे पकड़ा हुआ है और सामने करके उससे उन्होंने अपनी नग्नता मात्रको छिपाया हुआ है। संभवतः श्वेताम्बर सम्प्रदायके पूर्वज अर्धफालक सम्प्रदायका यही रूप था। यह सम्भव है कि उसे अर्धफालक सम्प्रदाय नामसे न कहा जाता हो और दिगम्बरोंने ही वस्त्र खण्ड रखनेके कारण उन्हें यह नाम दे दिया हो । मगर श्वेताम्बर साधुओंका प्रारम्भिक रूप यही प्रतीत होता है । क्योंकि श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र के संबोध प्रकरणसे प्रकट होता है कि विक्रमकी ७वीं ८वीं शताब्दी तक श्वेतांबर साधु भी मात्र एक कटिवस्त्र ही रखते थे। तथा जो साधु उस कटिवस्त्रका उपयोग
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