Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
३६६ अचेल ही रहेंगे। 'सान्तरोत्तर' वाली बात उन्होंने समाप्त कर दी। फिर भी पार्श्वनाथके साधुओंकी सरलता और समझदारीके कारए वस्त्रकी जो छूट सर्वसाधारणके लिये थी, भगवान महावीरने वह छूट केवल असमर्थ साधुओंके लिये ही रखी , और उसके साथ अनेक शर्ते लगा दी, जिससे साधु वस्त्रको अपवाद मार्ग ही समझ उत्सर्ग मार्ग न समझ बैठे। किन्तु उनके शिष्योंकी 'बक्रजड़ता' ने काल पाकर अपना रंग दिखाया और उन्होंने ऐसी रचनाएँ रची कि उत्सर्ग मार्गको धता बताया और अपवाद मार्ग को उत्सर्ग मार्ग बना दिया। श्वेताम्बर साहित्यके परिशीलनसे उक्त तथ्य सामने आता है। इस विषयको और भी स्पष्ट करने वाले भगवान पार्श्वनाथके अनुयायी जो साधु भगवान महावीरके समयमें वर्तमान थे उनके विषयमें भी विचार करनेकी आवश्यकता है ?
.... पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु श्वेताम्बरीय आगमोंमें पार्श्वनाथके अनुयायियोंके लिये 'पासावञ्चिज 'शब्द आया है। जिसका संस्कृत रूप 'पापित्यीय' होता है और अर्थ होता है-पार्श्वस्वामीके परम्परा शिष्य ।
एक दूसरा शब्द भी पाया जाता है जो पार्श्वनाथके अनुया. यिओंके लिये व्यवहृत होता था। बह शब्द है-पासत्थ । इसके दो संस्कृत रूप होते हैं-एक पार्श्वस्थ और एक पाशस्थ । पाशस्थ का अर्थ होता है 'पाशमें फँसा हुआ'। और पार्श्वस्थका अर्थ होता है-पार्श्वमें स्थित । यह 'पासत्थ' शब्द उत्तर काल में शिथिलाचारी साधुके लिये व्यवहृत हुआ है। इस परसे ऐसा लगता है कि महावीर भगवानके समयमें पाव के अनुयायी साधु शिथि.
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