Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद
३६७ 'उत्तर' अर्थात् महामूल्य होनेके कारण प्रधान, ऐसे वस्त्र जिसमें धारण किये जायें वह धर्म सान्तरोत्तर है। इसका आशय यह हुआ कि पार्श्वनाथके धर्ममें साधुओंको महामूल्यवान् और अपरिमित वस्त्र पहननेकी अनुज्ञा थी। इस व्याख्याके अनुसार केशी अवश्य ही राजसी वस्त्रोंमें होंगे। फिर भी अचेल गौतमको पार्श्वनाथके निग्रन्थ सम्प्रदायके उस आचार्यको देखकर रंचमात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ, यह आश्चर्य है ।
असलमें टीकाकारोंने 'संतरुत्तर' का यह अर्थ 'अचेल' शब्दके अर्थको दृष्टिमें रखकर किया है। जब अचेलका अर्थ वस्त्राभावके स्थानमें क्रमशः कुत्सित चेल, अल्पचेल और अमूल्य चेल किया गया तो संतरुत्तर ( सान्तरोत्तर ) का अर्थ अपरिमित और महामूल्य वाले वस्त्र होना ही चाहिये था। किन्तु यह अर्थ करते समय टीकाकार यह शायद भूल ही गये कि आचारांग सूत्र २०६ में भी 'संतरुत्तर' पद आया है और वहाँ उसका अर्थ क्या लिया गया है ? __ तीन वस्त्रधारी साधुके लिये आचारांगमें बतलाया है कि जब शीत ऋतु बीत जाये और ग्रीष्म ऋतु आ जाये तो वस्त्र यदि जीर्ण न हों तो कहीं रख दे , अथवा 'सान्तरोत्तर' हो जाये। टीकाकार आचार्य शीलांकने यहाँ सान्तरोत्तरका अर्थ किया' है
१-'सान्तरमुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित् प्रावृणोति क्वचित् पार्श्ववर्ति विभर्ति ।'-प्राचा० सू० २०६, टीका ।
डा० याकोबीने अपने उत्तराध्ययनके अनुवादमें 'अचेल और सन्तुरुत्तर' का अर्थ इस प्रकार किया है-'महावीरके धर्ममें वस्त्रका निषेध था किन्तु पार्श्वने एक अन्तर और एक उत्तर (एक अधोवस्त्र और एक ऊपरी वस्त्र ) इस तरह दो वस्त्रोकी आज्ञा दी थी। ( से ० बु० ई०,
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