Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
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है । आव० नि० पर विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणने अपने भाष्य में बतलाया है कि यह आठवाँ निन्हव वोटिक मत है, और उन्होंने ही वोटिक मतकी उत्पत्ति कथा भी दी हैं। इस तरह से इस आठवें निन्हवके जन्मदाता वे ही जान पड़ते हैं । और इसलिये दिगम्बर कथाओंके जिनभद्र ये जिनभद्र ही हो सकते हैं । उन्होंने ही सर्वप्रथम जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद होनेकी घोषणा की थी । कथामें भी यही बतलाया गया. है कि जिनकल्पका विच्छेद होनेके पश्चात् शिवभूतिने नग्न होकर जिनकल्पका प्रवर्तन किया और इस तरह वोटिक मत चल पड़ा । किन्तु इससे दिगम्बर मत अर्वाचीन प्रमाणित नहीं होता क्योंकि जब जिनकल्पको दिगम्बरत्वका प्रतिरूप माना गया है और जम्बूस्वामी तक उसका प्रचलन रहा है तथा उसे ही शिवभूतिने धारण किया तो उसने नवीन मत कैसे चलाया । जो पुराना था तथा एक पक्षने जिसके बिच्छेद होनेकी घोषणा कर दी थी। उसीका पुनः प्रवर्तन करना नवीन मतका चलाना तो नहीं है । यदि जिनकल्प पहले कभी प्रचलित न हुआ होता तथा जैन परम्परामें उसे आदर प्राप्त न हुआ होता तो उसे नवीन मत कहा जा सकता था । किन्तु उत्तरकालीन श्वेताम्बर साहित्य में जिनकल्पका समादर पाया जाता है । श्वताम्बरीय गमिक साहित्य के टीकाकारोंने प्रायः प्रत्येक कठिन चारको जिनकल्पका आचार बताया है। उसके सम्बन्ध में केवल इतना ही विरोध था कि पञ्चम कालमें उसका विच्छेद हो गया है, क्योंकि उसका धारण कर सकना शक्य नहीं है ।
सत्तेया दिट्ठोश्रो जाइजरा मरणगब्धवसहीणं । मूलं संसारस्य उ हवंति निग्गंथरूणं ॥ ७८६ ॥
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- प्रा० नि० ।
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