Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद शिवभूतिको भी यही कहकर समझाया गया था। किन्तु उसने यही उत्तर दिया कि असमर्थके लिये जिनकल्पका विच्छेद भले हो हुआ हो समर्थके लिये उसका विच्छेद कैसे हो सकता है ?
एक बात और भी है, दिगम्बर कथाओं में श्वेताम्बरोंकी बाबत प्रायः यही लिखा है कि जिनकल्पका धारण करना बड़ा कठिन है इसलिये हमने स्थबिर कल्पको धारण किया है । यही बात श्वे. ताम्बरीय कथामें भी प्रकारान्तरसे कही गई है। उससे संघभेदकी उत्पत्तिके आशयमें अन्तर नहीं पड़ता। दिगम्बर लेखक दिगम्बर वेशको जैन मुनिका साधारण प्राचार मानकर दुर्भिक्षजनित परिस्थितियोंके कारण उत्पन्न हुई शिथिलाचारिताको श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका जनक बतलाते हैं। और श्वेताम्बर लेखक जम्बू स्वामी के पश्चात् विच्छिन्न हुए जिनकल्पका पुनः संस्थापन करनेको दिगम्बर मतकी उत्पत्तिका जनक बतलाते हैं। तथा जिनकल्पके विच्छेदका कारण काल आदिकी कठिनताको बतलाते हैं, जो कि अशक्तताका ही सूचक है। किन्तु दोनोंके आशयोंमें इस ऐक्यके होते हुए भी एक मौलिक अन्तर भी है । दिगम्बरोंके अनु. सार श्वेताम्बर सम्पदाय (साधुओंका वस्त्र परिधान ) कभी था ही नहीं, श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयसे ही उसका प्रारम्भ हुआ। किन्तु श्वेताम्बरोंके अनुसार जिनकल्प (दिगम्बरत्व ) की प्रवृत्ति जम्बू स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चली आती थी। उसके
१-'उवहिविभागं सोऊ सिवभई अजकण्हगुरुमूले ।
जिणकप्पियाइयाण गुरुकीस नेयाणिं ॥२५५३।। जिणकप्प्योऽणुचरिजह नोच्छिन्नोत्ति भणिए पुणो भणइ । तदसत्तस्सोच्छिजउ बुच्छिजह किं समत्थस्स ।।२५५४।।
-विशे० भा० ।
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