Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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संघ भेद जिनभद्र और हरिषेणके बीचमें लगभग तीन शताब्दियोंका अन्तर है। अतः सम्भव है उनका नाम सुनकर हरिषेणने उन्हें भी स्थूलभद्रका सहयोगी समझ लिया हो। अस्तु,
देवसेन सूरिकी कथामें दुर्भिक्षके समय वलभी नगरीमें गये हुए साधुओंका दुर्भिक्षके कारण वस्त्र पात्र कम्बल आदि ग्रहण करना बतलाया गया है। किन्तु हरिषेणकृत कथा में पहले अर्धफालक सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है अर्थात् शिथिलाचारी साधु बायें हाथ पर वस्त्र खण्ड लटकाकर आगे कर लेते थे-जिससे नग्नताका आवरण हो जाता था-पीछे वलभी नगरीमें उन्होंने पूरा शरीर ढाकना शुरु कर दिया और कम्बल वगैरह रखने लगे। देवसेनकी कथाके उक्त अंशसे हरिषेणकी कथाका अर्धफालक वाला उक्त अंश बुद्धिग्राह्य तो है ही , मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे भी उसका समर्थन होता है।
अधफालक सम्प्रदाय जै० हि० भाग १३, अङ्क ६-१० में श्री नाथूराम जी प्रेमीने दर्शनसारकी विवेचनाके परिशिष्टमें रत्ननन्दिके भद्रबाहु चरित्र में
आगत उक्त कथाका विश्लेषण करते हुए लिखा था-दिगम्बर ग्रन्थोंके अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त वीर निर्वाण सम्वत् १६२ में हुआ है और श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति वीर नि० सं० ६०३ (विक्रम संवत् १३६ ) में हुई है। दोनोंके बीच में कोई साढ़े चार सौ वर्षका अन्तर है। रत्ननन्दि जीको इसे पूरा करनेकी चिन्ता हुई पर और कोई उपाय न था इस कारण उन्होंने भद्रबाहुके समयमें दुर्भिक्षके कारण जो मत चला था, उसको श्वेताम्बर न कहकर अर्धफालक कह दिया और उसके बहुत वर्षों बाद ( साढ़े चार सौ वर्षके बाद) इसी अर्धफालक सम्प्रदाय
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