Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचार्य काल गणना
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बुलानेके लिये कहा। राजाने बुलानेकी आज्ञा दे दी। वे पाये
और उनका खूब स्वागत सत्कार हुआ। परन्तु राजाको उनका वेष अच्छा न लगा। वे रहते तो थे नग्न, पर ऊपर वस्र रखते थे। रानीने अपने पतिके मनका भाव जानकर साधुओंके पास पहिननेके लिये श्वेतवस्त्र भेज दिये। साधुओंने भी उन्हें स्वीकार कर लिया। उस दिनसे वे सब साधु श्वेताम्बर कहलाने लगे। उनमें जो प्रधान था उसका नाम जिनचन्द्र था।'
ऐतिहासिक दृष्टिसे इन कथाओंका मूल्यांकन करनेके लिये उनमें वर्णित बातोंके सम्बन्धमें थोड़ा प्रकाश डाल देना उचित होगा। ___ उक्त कथाओं में जहाँ तक भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समयमें बारह वर्षके दुर्भिक्ष पड़ने तथा संघके साथ उनके दक्षिणापथको जानेका प्रश्न है, उसके सम्बन्धमें हम पिछले प्रकरणमें लिख आये हैं। अतः उसके सम्बन्धमें यहाँ कुछ न लिखकर शेष बातोपर प्रकाश डालते हैं। उत्तर प्रांतमें ही रह जाने वाले साधुओंमें तीन को प्रमुख बतलाया है-रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य इनमें से एक रामिल्ल नामके किसी साधुका पता श्वेताम्बर परम्परामें नहीं चलता। हाँ, स्थविर स्थूलभद्र भद्रबाहुके समकालीन और उत्तराधिकारी माने गये हैं। तथा दिगम्बर परम्परामें श्रुतकेवली भद्रबाहुको जो स्थान प्राप्त है, वहो स्थान श्वेताम्बर परम्परामें स्थूलभद्रको प्राप्त है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी आचार्य परम्पराका आरम्भ श्रुतकेवली भद्रबाहुसे न होकर स्थूलभद्रसे होता है। उनके यहाँ श्रु त केवली भद्रबाहुकी शिष्य परम्पराका १–'तं जहा-थेरस्स ण अज्जजसभहस्स""अंतेवासो दुबे थे।
थेरे अज संभूअविजए थेरे अज भद्दवाहू"। थेरस्स णं अज
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