Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका परीषहोंको सहना आदि बड़े ही कठिन आचरण हैं। इस समय हम लोगोंने जो आचरण ग्रहण कर रक्खा है वह इस लोकमें भी सुखदायक है। इस पंचम कालमें हम उसे नहीं छोड़ सकते । तब शान्त्याचार्यने कहा कि चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं, यह जैन मार्गको दूषित करता है। जिनवर भगवानने निम्रन्थ प्रवचनको ही श्रेष्ठ कहा है, उसको छोड़कर अन्य मार्गका अवलम्बन लेना मिथ्यात्व है। इस पर रुष्ट होकर उस शिष्यने अपने दीर्घ दण्डसे गुरुके सिर पर प्रहार किया जिससे मरकर वह व्यन्तर हो गया। तब वह शिष्य संघका स्वामी बन गया और प्रकृट रूपसे श्वेताम्बर हो गया। वह लोगोंको उपदेश देने लगा और कहने लगा-सग्रन्थ लिंगसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। अपने अपने ग्रहण किये हुए पाषण्डोंके सदृश उन लोगोंने शास्त्रोंको रचना को और उनका व्याख्यान करके लोगोंमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति चला दी। (भाव सं०, गा०५३-७०)।
हरिषेणकृत वृहत्कथाकोशसे भद्रबाहुकी कथाका कुछ अंश श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्यके प्रकरणमें दे आए हैं। जिसमें दुर्भिक्षके कारण श्रुतकेवली भद्रबाहुसे चन्द्रगुप्तके दीक्षा लेने और उसका विशाखाचार्य नाम होने तथा उसके साथ संघके दक्षिणा पथको चले जानेका निर्देश है। आगेकी कथा इस प्रकार है-'सुभिक्ष हो जाने पर भद्रबाहु गुरुका शिष्य विशाखाचार्य समस्त संघके साथ दक्षिणापथके देशसे मध्य देशमें लौट आया। रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य तीनों दुर्भिक्ष कालमें सिन्धु देशमें चले गये थे । इन्होंने वहाँसे लौटकर कहा कि वहाँ के लोग दुर्भिक्ष पीड़ितोंके हल्लेके कारण दिनमें नहीं खा पाते थे, इससे रातको खाते थे। उन्होंने हमसे कहा कि आप लोग भी रातके समय हमारे घरसे पात्र लेकर आहार ले जाया करें। उन लोगों
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