Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका का मध्यवर्ती प्रदेश माना जाता है। मगध देश और शूरसेन देश पास-पास होनेसे मगधकी भाषा मागधीका सूरसेन देशकी भाषा शौरसेनीके साथ सम्पर्क होनेसे अर्धमागधी भाषाकी उत्पत्ति हुई है। अतः उक्त लक्षणसे भी 'अध मागध्याः' व्युत्पत्ति का ही पोषण होता है। सर ग्रियर्सनने अपने प्राकृत भाषाओंके भौगोलिक विवरणमें यह स्थिर किया है कि जैन अर्ध मागधी मध्यदेश (शूरसेन ) और मगधके मध्यवर्ती देशकी भाषा थी। किन्तु क्रमदीश्वरने अपने प्राकृत व्याकरणमें अर्धमागधीका लक्षण भिन्न किया है-'महाराष्ट्री मिश्रा अर्ध मागधी; अर्थात् महाराष्ट्रीसे मिश्रित मागधी भाषा ही अर्धमागधी है।' सम्भवतया यह लक्षण अर्ध मागधी पर महाराष्ट्रीका प्रभाव पड़ने के पश्चात् रचा गया है; क्योंकि श्वे० जैन सूत्रोंकी अर्धमागधी में इतर भाषाओंकी अपेक्षा महाराष्ट्रीके लक्षण अधिक देखने में आते हैं। परन्तु इस लक्षण से भी यही प्रकट होता है कि अन्य भाषाओंसे मिश्रित मागधीको ही अधांमागधी कहते थे। अतः 'अर्धमागधी' में अर्ध शब्द मागधीके साथ समस्त है न कि मगध के साथ । मगध देशकी भाषा मागधी थी यह इतिहास सिद्ध है। आधे मगध देशकी भाषा उससे भिन्न कोई अन्य भाषा नहीं हो सकती जो अर्धमागधी कही जाती हो। फिर भी पं० हरगोविन्द दास जीने जो अर्ध मगधकी भाषाको अर्ध मागधी कहा है, उसका कारण शायद यह हो कि विद्वानोंका कहना है कि श्वे. जैन सूत्रोंकी भाषामें मागधीके लक्षण अधिक न मिलनेसे वह अर्धमागधी कहलानेके योग्य नहीं है । यह आपत्ति इसी बातको दृष्टिमें रखकर उठाई जाती है कि मागधीसे अर्धमागधी उत्पन्न हुई है। इसीके बचावके लिये शायद पण्डितजीने अर्धमागधीका अर्थ आधे मगधकी भाषा
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