Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर
२७७ है। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर तथा शेष बाईस तीर्थङ्करोंके धर्ममें अन्तर होनेका निर्देश दिगम्बर साहित्यमें भी मिलता है। मूलाचार, में जो दिगम्बर परम्पराका मान्य प्राचीन आचार ग्रन्थ है, लिखा है कि दूसरे अजितनाथ तीर्थङ्कर से लेकर तेईसवें पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थङ्करोंने सामायिक संयमका उपदेश दिया था। किन्तु प्रथम ऋषभ और अन्तिम महावीर तीर्थङ्करने छेदोपस्थापना संयमका भी उपदेश दिया था। इसी ग्रन्थमें आगे और लिखा है-प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर का धर्म प्रतिक्रमण सहित था अर्थात् दोष लगे या न लगे, किन्तु उसकी विशुद्धिके लिये प्रतिक्रमण करना आवश्यक था। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके धर्म में अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करनेका विधान था।
इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि पार्श्व और महावीरके धर्ममें थोड़ा अन्तर अवश्य था। पार्श्वनाथने सामायिक, परिहार. विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात रूप चार ही चारित्रोंका विधान किया था तथा उनके धर्ममें साधुके लिये प्रतिक्रमण करना जरूरी नहीं था-दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण किया जाता था। किन्तु महावीरने छेदोपस्थापनाका विधान करके चारकी जगह पाँच चारित्रोंका विधान किया और अपराध हो या न हो, साधु के लिये प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कर दिया। १-'बावीसं यतित्थयरा सामायियसंजमं उदिसंति ।
छेदुवढावणियं पुण भयवं उसहा य वीरो य ॥ ३६ ॥ २-- सपडिकम्मो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्य य जिणस्स । अवराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६ ॥
-मूला० ७ अ०
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