Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पूर्व पीठिका वर्ष भी सम्मिलित कर लिये जावें। ऐसा किए जाने पर विक्रम संवत् विक्रम मृत्युका संवत् हो जाता है और फिर सारा झगड़ा मिट जाता है। अनेका०, वर्ष १, कि० १, पृ० २१-२२)।
इस तरह मुख्तार साहबने जैन काल गणनाके आधार पर प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्को ही ठीक प्रमाणित किया । तत्पश्चात् मुनि कल्याण विजय जीने भी वीर निर्वाण सम्बत् और जैनकाल गणना शीर्षक एक महत्वपूर्ण निबन्ध लिखकर प्रचलित वीर निर्माण सम्बत्को ही ठीक प्रमाणित किया था।
सन् १९४१ में मैसूर राज्यके अास्थान विद्वान् पं० ए० शान्ति राज' जी शास्त्रीने प्रचलित वीर निर्माण सम्वत् पर आपत्ति की। आपकी आपत्तिका मुख्य आधार था त्रिलोकसारकी गाथा ८५०, जिसमें वीर निर्माणसे ६०५ वर्ष ५ मास बाद शकराजाकी उत्पत्ति बतलाई है। पं० जीका कहना था कि उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'सगराजो'-शकराजःशब्दका अर्थ पुरातन विद्वानों द्वारा विक्रम ग्रहण किया गया है अतएव वही अर्थ ग्राह्य है। अपने इस कथनके प्रमाणमें आपने त्रिलोकसारकी माधवचन्द्र कृत संस्कृत टीकाको उपस्थित किया था। उसमें टीकाकारने शक राजका अर्थ विक्रमांक (-मार्क ) शकराज किया है। अतः शास्त्री जीने विक्रम सम्वत् ६०५ वर्ष पूर्व वीरका निवाण माननेका सलाह दी थी। किन्तु टीकाकारने यदि 'भ्रमवश' शकका अर्थ विक्रम शक कर दिया हो तो उसे किसी निर्णयका आधार नहीं बनाया जा सकता। अन्य किसी भी ग्रन्थकारने उक्त शक कालको विक्रमका काल नहीं माना । त्रिलोकसारके पूर्ववर्ती धनाला टीकामें वीरसेन स्वामी
१-अनेकान्त, वर्ष ४, पृ० ५५६ ।
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