Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका' दोनों ही परम्पराओंमें भगवान महावीरके पश्चात्की आचाय परम्पराका जो काल दिया है वह निर्दोष नहीं है। और इसलिये उसके आधार पर किसी निर्दोष तथ्यका उद्भावना करना संभव नहीं है।
यहाँ हमने वीर निर्वाणके समयका निर्धारण करनेकी दृष्टिसे प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्को ही ठीक मानकर उसके आधारपर महावीर भगवानके समकालीन व्यक्तियोंके कालक्रम तथा घटनाओंका सम्बन्ध बैठाया । पश्चात् महावीर निर्वाणके पश्चात् होनेवाले राजाओं तथा राजवंशोंके कालक्रमके साथ उसकी संगति बैठाई और फिर आचार्योंकी काल गणनाके प्रसंगमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्यके इतिहास प्रसिद्ध साहचर्यको लेकर १०० वर्षमें होनेवाले पाँच श्रुतकेवलियोंके कालक्रममें कतिपय वर्षोंकी भूल होनेकी आशंका प्रकट की है। . इस परसे यह कहा जा सकता है कि जाल चापेन्टियरने जो प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्में ६० वर्ष अधिक बतलाकर ६० वर्ष करनेकी सम्मति दी थी उसे ही मान्य क्यों न कर लेना चाहिये । क्योंकि उससे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तकी समकालीनता बन जाती है।
किन्तु ऐसा करनेसे यद्यपि भद्रबाहुका समय चन्द्रगुप्तके पास आ जाता है जैसा कि हेमचन्द्राचार्यने किया है। किन्तु विक्रम सम्वत् और वीर निर्वाण मम्वत्के बीचका प्रसिद्ध ४७० वर्षका अन्तर तथा शक राजा और वीर निवाण सम्वतके बीचका ६०५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर गड़बड़ा जाता है, और इनके पीछे प्राचीन जैन अभिलेखोंका इतना जबरदस्त बल है कि उसको रौंद करके आगे बढ़ना शक्य नहीं है। अतः वीर निर्वाणका जो काल माना जाता है वही उचित है।
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