Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका शुक्लापंचमीके दिन यह ग्रन्थ पूजा के लिये स्थापित किया गया । उसमें यह भी लिखा है कि वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष बीतने पर शक राजा हुआ। अतः १७८० में से ६०५ वर्ष घटाने पर ११७५ शेष बचते हैं। प्रधावी संवत्सर शकसं० ११७५ में ही पड़ता है। अतः प्रधावी संगत्सर में-शक सं० ११७५ में वीरनिर्वाणको हुए १७८० वर्ष बीते थे। अतः शक सम्बत्से ६०५ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण हुआ यह सिद्ध है। किन्तु प्रशस्तिकी कनड़ी टोकामें वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष तककी प्राचार्य परम्परा बतलाकर लिखा है -'आचारांग पाठी आचार्योंसे लेकर प्रधावी संवत्सरकी जेष्ठ शुक्ला पंचमी तक-जब ग्रन्थ पूजा के लिए स्थापित किया गया-५०६७ वर्ष हुए । अतः १०६७+ ६८३ जोड़नेसे १७८० होते हैं। आगे लिखा है कि वीर स्वामी का निर्वाण सम्वत् १६२२० प्रवर्तित है। और यह भी लिखा है कि वीर जिनके मोक्षसे ६०५ वर्ष ५ मास बाद शक राजा हुआ। ___यहाँ गल्ती हुई है और वह यह हुई है कि बीर प्रभुके तीर्थ काल २१००० मेंसे १७८० को घटाकर शेष १६२२० को निर्माण काल मान लिया है । अतः ऐसी भूलोंके आधार पर ऐतिहासिक निर्णय नहीं किए जा सकते।। . माघनन्दि श्रावकाचारकी प्रशस्तिके उक्त उल्लेखसे यह भी प्रमाणित होता है कि लगभग सात सौ वर्षों पूर्व शक सम्वत्से ६०५ वर्ष पूर्व ही वीर निवाण सम्बत् माना जाता था। अतः प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्की मान्यताके पीछे सात सौ वर्षों की परम्पराका उल्लेख भी उसकी प्रामाणिकताकी ही पुष्टि करता है।
अब भगवान महावीरके समकालीन व्यक्तियों तथा कतिपय अन्य संकलनाओंकी दृष्टिसे प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् पर विचार किया जाता है।
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