Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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श्राचार्य काल गणना
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लाती हैं कि भद्रबाहु के समय में बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और उसके कारण बहुत सा श्रुत विच्छिन्न हो गया ।
खारवेल के हाथीगुफावाले शिलालेखकी १६ वीं पंक्ति में आगत एक वाक्यको पहले इस प्रकार पढ़ा गया था - 'मुरियकालं वोछिनं (नें ? ) चोयठि अगस निकंतरियं उपादायाति ।' और इसका अर्थ किया गया था - मुख्यिकाल के १६४वें वर्षको वह पूर्ण करता है ( शि० ले० सं० भा० २ ) किन्तु पीछे श्रीजायसवाल ने बड़े श्रम साथ अध्ययन करके इसका संशोधन इस प्रकार किया 'मुरियकाल वो छिनं च चोयठि अंग सतिकं तुरियं उपादयति ।' और उसका अर्थ बतलाया - मौर्यकाल में विच्छिन्न हुए चौसठ भागवाले चौगुने अंगसप्तिकका उसने उद्धार किया ।' अथवा तुरियका अर्थ चतुर्थ (पूर्व ) भी किया जा सकता है. जिसके ६४ भागों में सात अथवा सौ या १६४ अंग थे ।' इन अर्थों को करके श्री जायसवाल ने लिखा है- जैन आगमोंके इतिहासके और अधिक गहरे अध्ययन से हम यह निर्णय करने में समर्थ होंगे कि इन तीनों में से कौन सा अर्थ ग्राह्य है । किन्तु चन्द्रगुप्त के समय में जैन मूल ग्रन्थोंके विनाशको लेकर जैन परम्परा में जो विवाद चलता है, उसका लेखके उक्त पाठसे आश्चर्यजनक समर्थन होता है । इससे यह स्पष्ट है कि उड़ीसा जैन धर्मके उस सम्प्रदायका अनुयायी था, जिसने चन्द्रगुप्तके राज्य में पाटलीपुत्र में होनेवाली वाचनामें संकलित आगमोंको स्वीकार नहीं किया था ।' (ज० वि० उ०रि० सो० जि० १३, पृ० २३६ ) ।
उक्त शिलालेख उक्त पाठसे यह स्पष्ट हो जाता है कि दिग म्बर तथा श्वताम्बर परम्परामें भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समय से श्रतका विच्छेद होनेकी जो अनुश्र तियाँ हैं, वे मौर्यकाल से सम्बद्ध
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