Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका गुप्त मौर्य और भद्रबाहुकी समकालीनता ठीक बन जाती है। अथवा चन्द्रगुप्त मौर्यके कालमेंसे ६० वर्ष पीछे हटा दिये जायें जैसा कि हेमचंद्राचार्यने महावीर निर्वाणसे २१५ वर्षकी परम्पराके स्थानमें १५५ वर्ष पश्चात चंद्रगुप्तका राजा होना लिखा है तो दोनोंकी समकालीनता बन सकती है। प्राचार्य हेमचंद्रने ऐसा विचारपूर्वक ही किया है और इसलिये उनके समयमें दोनोंकी समकालीनताको एक वास्तविक तथ्यके रूपमें माना जाता था , यह स्पष्ट है, क्योंकि यदि उसमें उन्हें थोड़ा सा भी संदेह होता तो हेमचंद्र २१५ वर्षकी चली आई हुई प्राचीन जैन गणनामें संशोधन करनेका साहस न करते।
भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त - आगे हम श्रुत केवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तको समकालीन बतलाने वाले उल्लेखोंका साधार निर्देश करते हैं
दिगम्बर साहित्यमें इस बिषयका सबसे प्राचीन उल्लेख हरिघेणकृत बृहत्कथा कोशमें ( कथा १३१ ) पाया जाता है। यह ग्रन्थ शक सम्वत् ८५३ का रचा हुआ है। इसमें बतलाया है कि भद्रबाहु पुण्ड्रवर्धन देशके निवासी एक ब्राह्मणके पुत्र थे। उन्होंने एक दिन खेलते हुए एकके ऊपर एक, इस तरह चौदह गंटू रख दिये । चतुर्थ श्रुत केवली गोवर्धन उधरसे कहीं जाते थे। उन्होंने भद्रबाहुको उसके पितासे माँग लिया और उसे पढ़ा लिखाकर विद्वान बना दिया। पीछे भद्रबाहुने अपने गुरुसे मुनि दीक्षा ले ली, और वह गोवर्धन के स्वर्गगमनके पश्चात् पञ्चम श्रुत केवली हुए। __एक दिन वे उज्जनी नगरीमें भिक्षाके लिये गये। उस समय वहाँका राजा श्रीमान् चन्द्रगुप्त था और वह महान् श्रावक था।
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