Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका (पृ. ४२४ ) लिखा है-'हम इस अनुश्रुतिमें कोई संदेह नहीं करते कि चन्द्रगुप्त नामका उजयिनीका एक राजा आचार्य भद्रबाहुके साथ श्रवणवेल गोलामें आया था और वहाँ पहुँचकर अनशन व्रत करके स्वर्गलोक सिधारा था। परन्तु प्रश्न यही है कि चन्द्रगुप्त है कौन सा ? जैन साहित्यके अनुसार यह अशोकका पौत्र है।'
किन्तु भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त द्वितीयकी, जो इतिहासमें संप्रति के नामसे ही प्रसिद्ध है , समकालीनता संभव नहीं है। अशोक के पौत्र सम्प्रतिका राज्याभिषेक २० ई० पू० में हुआ। अर्थात् चन्द्रगुप्त प्रथमके राज्याभिषेकसे सौ वर्षसे भी अधिक कालके पश्चात । उस समय भद्रबाहुका अस्तित्व किसी भी तरह संभव ननी है। यद्यपि श्वेताम्बर साहित्यमें मम्प्रतिको जैन धर्मका महान् उद्धारक लिखा है। आर्य सुहस्तीने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था। किन्तु एक तो श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार भद्रबाह श्रतकेवलीके ७५ वर्ष पश्चात् आर्य सुहस्ती पट्टासीन हुए थे। दूसरे, सम्प्रतिके राजपाट त्याग कर जिन दीक्षा लेनेका कोई निर्देश नहीं है। तीसरे, सम्प्रतिका चन्द्रगुप्त नाम भी कहीं नहीं मिलता, श्वेताम्बर साहित्यमें सम्प्रति नामसे ही उसका उल्लेख मिलता है। अतः भद्रबाहु श्रुतकेवलीका समकालीन चन्द्रगुप्त नामक राजा मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ही हो सकता है। इतिहासमें उसकी राज्य समाप्तिका उल्लेख नहीं मिलता और न उसकी मृत्यु होनेका ही निर्देश है। इससे यह बहुत संभव माना जाता है कि उसने राज्य त्यागकर श्रुतकेवली भद्रबाहुसे मुनि दीक्षा ली।
डा० स्मिथने ( आक्स० हि० इ०, पृ० ७५-७६ ) लिखा था'चन्द्रगुप्त मौर्यका राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इसपर
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