Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा. इ०-पूर्व पीठिका साहित्यमें महावीर निर्वाणसे भद्रबाहु स्वामी पर्यंत १६० वर्षके अन्तराल में इस प्रकारके किसी विवादका संकेत तक नहीं है।
बुद्धके निर्वाणसे ५०० वर्ष पश्चात् ईसाकी प्रथम शताब्दीमें तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओंकी स्मृतिके आधारपर उपलब्ध त्रिपिटक ग्रन्थोंको लंकामें लिपिबद्ध किया गया था। उस समयतक जैन धर्ममें दिगम्बर श्वेताम्बर भेद उत्पन्न हो चुका था। तथा पावामें भगवान महाबीरका निर्वाण होनेकी बात तो सर्वविश्रुत थी। ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिपिटकोंके संकलयिताओंने इन घटनाओंको समकालीन समझकर एकत्र निबद्ध कर दिया, तथा उन्होंने पावाको वही पावा समझ लिया जिससे वे विशेष रूपसे परिचित थे। अतः बौद्ध ग्रन्थोंके इस उल्लेखके आधार पर प्रचलित निवाण सम्वत्को गलत प्रमाणित नहीं किया जा सकता। ___ यदि त्रिपिटकोंके उल्लेखोंका तुलनात्मक रूपसे परिशीलन किया जाये तो उनमें परस्पर विरुद्धता मिल सकती है । यहाँ हम केवल दो उल्लेखोंको उदाहरणके रूपमें उपस्थित करते हैं।
संयुत्त निकायके जटिल' सुत्तमें लिखा है कि एक बार कौसलाधिपति प्रसेनजित्ने बुद्धसे भेट की और उनके प्रश्नके उत्तरमें बुद्धने कहा कि 'अनुत्तर सम्यक संबोधिको जान लिया' ऐसा मेरे विषयमें ही कहना उचित है । तब प्रसेन जित्ने कहा
'हे गौतम ! वह जो श्रमण ब्राह्मण संघ के अधिपति, गणाधिपति, गणके आचार्य, ज्ञात यशस्वी, तीर्थङ्कर, बहुत जनों द्वारा साधु सम्मत हैं-जैसे पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशालक, निग्गंठ नाटपुत्त, संजय वेलढिपुत्त, प्रक्रुद्ध कात्यायन, अजितकेश कम्बली।
बुद्ध च०, पृ०, ६६,
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