Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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वीर निर्वाण सम्वत्
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ने स्पष्ट लिखा है कि ६८३ वर्षमें से ५७ वर्ष ७ मास कम करने पर पाँच मास अधिक ६०५ वर्ष होते हैं। वह वीर जिनेन्द्र के निर्वाण प्राप्त होनेके दिन से लेकर शककालके प्रारम्भ होने तकका काल है । इस काल में शक नरेन्द्रका काल जोड़ देने पर वर्धमान जिनके मुक्त होनेका काल आता है । अपने इस कथन के समर्थन में वीरसेन स्वामीने एक प्राचीन गाथा' भी उद्धृत की है। उसका भी यही अभिप्राय है कि शककाल में ६०५ वर्ष ५ मास जोड़ देने से वीरजनेन्द्रका निर्वाणकाल आ जाता है ।
तिलोय प० और हरिवंश पुराणमें भी महावीर निर्वाण और शकराजाका अन्तरकाल ६०५ वर्ष ५ मास बतलाते हुए शकको 'विक्रमार्क' नहीं कहा। अतः उक्त गाथामें आगत शकराज शब्दसे विक्रम संवतका निर्देश नहीं लिया जा सकता इण्डि० ए० जि० १२ में स्व० के० बी० पाठकने भी वीरनिर्वाण सम्वत् सम्बन्धी अपने लेखमें त्रिलोकसारकी टीकाकी भूलकी चर्चा की थी और टीकाकारोंके द्वारा भूल किये जानेके एक दो उदाहरण भी दिये थे | आपने लिखा था- 'त्रिलोकसार में - 'पण छस्सयबस्स पणमास जुदं गमिय वीरणिव्वुइदो । सगराजो ।' के टीकाकार माघवचन्द्र ने शक राजाका अर्थ 'विक्रमाङ्क शकराज' किया
। मूल ग्रन्थ में इस तरह का कोई निर्देश नहीं है। देशी टीकाकारोंसे इस तरह की भूलें हुई है । उदाहरणके लिए — माघनन्दि श्रावकाचारी प्रशस्तिको रखा जा सकता है। इसकी प्रशस्ति में बतलाया है कि वीर नि० सं० १७८० में प्रधाबी संवत्सरमें ज्येष्ठ
होति वाससया ।
१ - 'पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव सगकाले य सहिया थावेयव्त्रो तदो रासी ॥ ४१
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- षट खं०, पु० ६, पृ० १३२ ।
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