Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर
२८३ है, वह महावीर भगवान्के निर्वाणके उपलक्षमें ही प्रचलित हुआ था।
महावीर निर्वाणका समय महावीर भगवान्के निर्वाण समयको लेकर पुरातत्त्वज्ञोंमें बहुत समयसे मतभेद चला आता है। यह मतभेद आधुनिक नहीं है। प्राचीन जैन साहित्यमें भी इस विषयको लेकर मतभेद पाया जाता है। उदाहरणके लिये प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रन्थ तिलोयपएणति' में इस विषयके चार मतोंका निर्देश किया है। इन चारो मतोंमें वीर निर्वाणसे अमुक वर्षोंके पश्चात् शक राजाके होनेका निर्देश किया है। इसी तरह धवलाकार' वीरसेन १- 'वीर जिणे सिद्धिगदे चउसद इगिसट्ठिवास परिमाणे । कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ सगरात्रो ॥१४९६॥ अहवा वीरे सिद्ध सहस्सणवकम्मि सगसयब्भहिए । पणसीदम्मि अतीदे पणमासे सगणिश्रो जादो ।।१४६७॥ चोद्दससहस्स सगसय तेण उदीवासकालविच्छेदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णो सगणिो अहवा ।।१४६८।। णिव्वाणे वीरजिणे छव्याससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिश्री अहवा' ।।१४६६।।
-ति० प०, श्र० ४ । २-'पंचयमासा पंच य वासा छच्चेव होति वाससया । सगकालेण य सहिया यावेयव्वो तदो रासी' ।। ४१ ।। गुत्ति पयत्य-भयाई चोद्दस रयणाइ समइकंताई । परिणिव्वुदे जिणिंदे तो रज्जं सगणरिदस्स ॥ ४२ ॥ सत्त सहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य । अहकता वासाणं जहया तहया सगुप्पत्ती ।। ४३ ।।
-षट् खं०, पु० ९, पृ० १३२-१३३ ॥
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