Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्वामीने धवलामें भी तीन मतोंका निर्देश किया है जिनमेंसे दो मत त्रिलोकप्रज्ञप्तिके ही अनुरूप है। त्रि०प० में दत्त चतुर्थ मत के अनुसार तथा धवला के प्रथम मतानुसार वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ । श्री जिनसेनने अपने हरिवंश पुराणमें ( शक सम्वत् ७०५) तथा श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने (शक सं० १२५ के लगभग) अपने त्रिलोकसार' में इसी मत को स्थान दिया है जिससे स्पष्ट है कि उन्हें यही मत मान्य था।
शकका यह समय ही शक सम्वत्की प्रवृत्तिका काल है। इसका समर्थन श्वेताम्बराचार्य मेरुतुंग की विचार श्रेणी में उद्धृत एक प्राचीन श्लोकसे होता है। उसमें बतलाया है कि महावीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष बाद इस भारतवर्षमें शक सम्वत्की प्रवृत्ति हुई।
शक सम्वत् और विक्रम सम्वत्में १३५ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। ६०५ वर्षमें से १३५ वर्ष घटानेसे ४७० वर्ष अव
१-वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पञ्चायां मासपञ्चकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥५५१॥
-ह. पु०, सगे ६० । २-पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुहदो । सगराजो तो कक्की चदुणव तियमहियसगमासं ॥८५० ।।
-त्रि० सा०। ३-'श्री वीरनिवृतेर्वर्षे षभिः पञ्चोत्तरैः शतैः।
शाकसम्वत्सरस्यैषा प्रवृत्ति भरतेऽभवत्' ।।
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